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________________ असद्भूतव्यवहारनय / ७७ के छिन्न-भिन्न किये जाने पर हमें दुःख नहीं होता वैसे ही अपने शरीर के छिन्नभिन्न किये जाने पर भी नहीं होना चाहिए। किन्तु ऐसा नहीं होता, यह प्रत्यक्ष दिखाई देता है। प्रश्न : इस तरह भी हिंसा व्यवहारनय से घटित होती है, निश्चयनय से नहीं। समाधान : आपने ठीक कहा। हिंसा व्यवहारनय से ही सिद्ध होती है। इसी प्रकार पाप भी एवं नरकादि के दु:ख भी व्यवहारनय से ही घटित होते हैं। यह हमें मान्य है। इसलिए यदि नरकादि के दु:ख आपको अच्छे लगते हों, तो हिंसा कीजिए, यदि उनसे भय हो तो त्याग दीजिए।" इस प्रकार शरीरादि प्राणों के साथ जीव का कथंचित् अभेद वास्तविक है। यद्यपि व्यवहारनय परद्रव्यसम्बन्धावलम्बी होने से अभूतार्थ है' तथापि जीव की परद्रव्यसम्बद्ध अवस्था एवं जीव और शरीर के कथंचित् अभेद की प्रतीति उसी के द्वारा होती है, मूलपदार्थावलम्बी निश्चयनय से यह सम्भव नहीं है। परद्रव्य के साथ निमित्त-नैमित्तिकसम्बन्ध का निश्चय परद्रव्यसम्बन्ध की दिशा से अवलोकन करने वाले असद्भूत व्यवहारनय के द्वारा इस सम्बन्ध की भी प्रतीति होती है। अत: यह परमार्थभूत है, काल्पनिक नहीं। तत्त्वार्थश्लोकवार्तिककार ने यह बात स्पष्ट की है - ___ “तदेवं व्यवहारनयसमाश्रयणे कार्यकारणभावो द्विष्ठः सम्बन्धः संयोगसमवायादिवत् प्रतीतिसिद्धत्वात् पारमार्थिक एव न पुन: कल्पनारोपितः।"२ - इस प्रकार व्यवहारनय का आश्रय लेने पर दो पदार्थों में रहनेवाला कार्यकारणभाव ( निमित्तनैमित्तिक ) सम्बन्ध संयोग-समवायादि सम्बन्धों के समान प्रतीति में आता है। अत: प्रतीतिसिद्ध होने के कारण पारमार्थिक ( यथार्थ ) ही है, कल्पनारोपित नहीं। यह सम्बन्ध अनेकरूपों में दृष्टिगोचर होता है। संसारावस्थापन्न जीव और पुद्गलकर्मों में इस सम्बन्ध के अस्तित्व का वर्णन करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं - जीवपरिणामहे, कम्मत्तं पुग्गला परिणमंति । पुग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवो वि परिणमइ ।।' १. “यद्यप्यं व्यवहारनयो बहिर्द्रव्यालम्बनत्वेनाभूतार्थस्तथापि "" ""।" समयसार/तात्पर्यवृत्ति/गाथा, ४६ २. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, १/७ ३. समयसार/गाथा, ८० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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