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७६ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन
आत्मा का मेल बिलकुल वैसा नहीं है जैसा नीर और क्षीर का, घी और घड़े का अथवा शरीर और वस्त्र का होता है। शरीर से संयुक्त वस्त्र को यदि चीरा-फाड़ा जाय तो शरीर को अथवा शरीर के द्वारा आत्मा को पीड़ा नहीं होती, किन्त आत्मसंयुक्त शरीर को छिन्न-भिन्न किया जाय तो आत्मा को पीड़ा होती है। नीर और क्षीर के संश्लेष में दोनों में से किसी को इस पीड़ा का अनुभव सम्भव नहीं है, क्योंकि दोनों अचेतन हैं। इससे सिद्ध होता है कि शरीर और आत्मा का मेल अनोखा है, अन्य समस्त वस्तुओं के मेल से भिन्न है, नीर-क्षीर के मेल से कुछ विशिष्ट है। मेल के इस अनोखेपन या वैशिष्ट्य को ही अभेद कहा गया है जो वास्तविक है। आचार्य जयसेन ने इस विलक्षण अभेद की वास्तविकता को निम्न व्याख्यान में प्रकाशित किया है -
कश्चिदाह जीवात् प्राणा भिन्ना अभित्रा वा ? यद्यभित्रास्तदा यथा जीवस्य विनाशो नास्ति तथा प्राणानामपि विनाशो नास्ति। कथं हिंसा ? अथ भिन्नस्तर्हि जीवस्य प्राणघातेऽपि किमायातम् ? तत्रापि हिंसा नास्तीति। तन्न, कायादिप्राणैः सह कथञ्चिद भेदाभेदः। कथमिति चेत् तप्ताय:पिण्डवद् वर्तमानकाले पृथक्त्वं कर्तुं नायाति तेन कारणेन व्यवहारेणाभेदः। निश्चयेन पुनमरणकाले कायादिप्राणा जीवेन सहैव न गच्छन्ति तेन कारणेन भेदः। यद्येकान्तेन भेदो भवति तर्हि यथा परकीये काये छिद्यमाने भिद्यमानेऽपि दु:खं न भवति तथा स्वकीयकायेऽपि दुःखं न प्राप्नोति। न च तथा प्रत्यक्षविरोधात्। ननु तथापि व्यवहारेण हिंसा जाता, न तु निश्चयेनेति ? सत्यमुक्तं भवता, व्यवहारेण हिंसा तथा पापमपि नारकादिदुःखमपि व्यवहारेणेत्यस्माकं सम्मतमेव। तनारकादिदुःखं भवतामिष्टं चेत्तर्हि हिंसां कुरुत। भीतिरस्ति इति चेत् तर्हि त्यज्यतामिति।"
-कुछ लोग प्रश्न करते हैं कि शरीरादि प्राण जीव से भिन्न हैं या अभिन्न ? यदि अभिन्न हैं तो जैसे जीव का विनाश नहीं होता वैसे ही प्राणों का भी नहीं हो सकता, तब हिंसा कैसे सम्भव है ? यदि प्राण भिन्न हैं तो जीव के प्राणों का घात होने पर भी क्या फर्क पड़ता है ? इस स्थिति में भी हिंसा नहीं हो सकती।
इसका समाधान यह है कि शरीरादि प्राणों के साथ जीव का कथंचिद् भेद भी है और अभेद भी। कैसे ? जैसे तप्त लोह-पिण्ड से अग्नि को अलग करना सम्भव नहीं है, वैसे ही वर्तमान पर्याय में प्राणों को जीव से पृथक् करना असम्भव है। इस कारण व्यवहारनय से अभेद है। किन्तु मरणकाल में कायादि प्राण जीव के साथ नहीं जाते इस कारण भेद है। यदि सर्वथा भेद हो, तो जैसे दूसरे के शरीर
१.समयसार/तात्पर्यवृत्ति/गाथा ३३२-३४४
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