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________________ ८० / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन अंजन की शलाका से उन्मीलित कर दिया, उन श्रीगुरु को नमस्कार करता हूँ । इस प्रकार परद्रव्यों के साथ आत्मा का कई प्रकार से निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्ध स्थापित होता है। इस सम्बन्ध की प्रतीति असद्भूतव्यवहारनय से होती है, क्योंकि यही नय परद्रव्यसम्बन्ध की दिशा से वस्तु का अवलोकन करता है । निश्चयनय की दृष्टि तो भिन्न वस्तुओं के मौलिक भेद पर ही जाती है, जिससे उसके अनुसार इस सम्बन्ध का अस्तित्व ही सिद्ध नहीं होता । परद्रव्यों के साथ संयोगसम्बन्ध का निश्चय कर्मोदयवश जीव के साथ शरीर, पति-पत्नी, सन्तान, धन-सम्पत्ति, इन्द्रिय-विषय आदि बाह्य पदार्थों का संयोग होता है, जो जीव के मोहरागद्वेष के उदय तथा सुख-दुःखात्मक परिणति का निमित्त बनता है। संयोगसम्बन्ध का निरूपण आचार्यों ने इस प्रकार किया है। पंथे पहियजणाणं जह बंधुजणाणं च तहा - जैसे मार्ग में पथिकों का क्षणमात्र के लिए संयोग होता है वैसे ही आत्मा के साथ ( माता-पिता, पति-पत्नी, पुत्र- मित्रादि ) बन्धुजनों का संयोग अल्पकाल के लिए होता है। संजोओ हवेइ खणमित्तं । संजोओ अद्धुओ होइ || जीव म जाणहि अप्पणउँ घरु परियणु तणु इट्टु | कम्मायत्तउ कारिमउ आगमि जोइहिं दिट्टु ।। २ - हे जीव ! तू घर, परिवार, शरीर और मित्रादि को अपना मत समझ, क्योंकि योगियों ने आगम में यह बतलाया है कि इनका संयोग कर्माधीन है, अतः ये अनित्य हैं। “दुक्खपडिकारहेदुदव्वसंपादयं कम्मं सादावेदणीयं णाम । दुक्खसमणहेदुदव्वाणमवसारयं च कम्मासादावेदणीयं णाम ।"" जो कर्म दुःख को रोकनेवाली सामग्री का संयोग कराता है उसे सातावेदनीय कहते हैं, जो उसका वियोग कराता है वह असातावेदनीय कहलाता है। इस संयोगसम्बन्ध के अस्तित्व का बोध भी बाह्यसम्बन्धावलम्बिनी असद्भूतव्यवहारदृष्टि से होता है। १. कार्तिकेयानुप्रेक्षा/गाथा ८ २. परमात्मप्रकाश २/१२३ ३. धवला १३/५, ५, ८८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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