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[ आठ ]
'जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा', 'जैनतत्त्वमीमांसा', 'जैनतत्त्वमीमांसा की मीमांसा' आदि ग्रन्थों का अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि निश्चय और व्यवहार नयों तथा उनके द्वारा प्रतिपादित वस्तुस्वरूप के विषय में मूर्धन्य विद्वानों के बीच कितनी विप्रतिपत्तियाँ हैं। इन विप्रतिपत्तियों पर यहाँ किंचित् प्रकाश डाला जा रहा है -
१. विद्वानों का एक वर्ग मानता है कि असद्भूतव्यवहारनय का विषय मात्र उपचारकथन है, वह वस्तुधर्म का प्रतिपादन नहीं करता, जब कि दूसरे वर्ग के अनुसार वह वस्तुधर्म का ही प्रतिपादक है।
२. एक वर्ग असद्भूतव्यवहारनय को अज्ञानियों के अनादिरूढ़ व्यवहार की संज्ञा देता है, दूसरा उसे श्रुतज्ञान का विकल्प बतलाता है।
३. एक वर्ग निमित्त को अयथार्थ एवं अकिञ्चित्कर घोषित करता है, दूसरा वर्ग उसे यथार्थ एवं कार्योत्पत्ति का अनिवार्य हेतु मानता है।
४. विद्वानों के एक वर्ग की दृष्टि में निश्चय और व्यवहार नय परस्परसापेक्ष हैं, दूसरे वर्ग की दृष्टि में परस्परनिरपेक्ष।
५. एक विद्वत्समूह निश्चयमोक्षमार्ग और व्यवहारमोक्षमार्ग में साध्य-साधक भाव स्वीकार करता है, दूसरा उसका निषेध करता है।
६. एक पक्ष की मान्यता है कि शुभोपयोग मात्र पुण्यबन्ध का कारण है, दूसरा पक्ष मानता है कि सम्यक्त्वपूर्वक होने पर वह ( शुभोपयोग ) परम्परया मोक्ष का भी कारण होता है।
७. विद्वानों का एक वर्ग व्यवहारमोक्षमार्ग को सर्वथा हेय घोषित करता है, दूसरा उसे कथंचित् उपादेय बतालता है।
८. एक वर्ग के मतानुसार मोक्षमार्ग अनेकान्तात्मक नहीं है, दूसरे के मत में मोक्षमार्ग भी अनेकान्तात्मक है।
९. एक वर्ग रागादिभावों को स्वाश्रित निरूपित करता है, दूसरा पराश्रित।
१०. विद्वानों का एक पक्ष कहता है कि केवली भगवान् का सर्वज्ञ होना व्यवहारनय से सत्य सिद्ध होता है। दूसरा पक्ष कहता है कि वह निश्चयनय से सत्य
११. एक पक्ष की दृष्टि में उपादान से उत्पन्न होने वाले सभी कार्य उपादानप्रेरित होते हैं, निमित्तप्रेरित कोई नहीं होता। दूसरा पक्ष अशुद्धोपादानजनित कार्यों को निमित्तप्रेरित मानता है।
१२. एक विद्वत्समुदाय आत्मा की समस्त पर्यायों को नियत बतलाता है, यहाँ तक कि पुरुषार्थ को भी, किन्तु दूसरे का मत है कि पर्यायों का निर्धारण आत्मा अपने पुरुषार्थ से स्वयं करता है और पुरुषार्थ नियत नहीं होता।
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