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________________ अपनी बात प्रस्तुत ग्रन्थ मेरे द्वारा पीएच.डी. उपाधि के लिए लिखे गये शोधप्रबन्ध का परिष्कृत और परिवर्धित रूप है। लगभग सत्रह वर्ष पूर्व यह लिखा गया था। तब से निरन्तर स्वाध्याय एवं मुनिजनों और विद्वज्जनों से किये गये विचार-विमर्श के फलस्वरूप इसे काटता-छाँटता, घटाता-बढ़ाता, माँजता और सँवारता रहा हूँ, और अब कहीं इसे प्रकाशन के योग्य पा रहा हूँ। नय श्रुतज्ञानात्मक उपयोग का एक भेद है। उपयोग का अर्थ है : वस्तुस्वरूप को जानने में प्रवृत्त ज्ञानशक्ति। जब श्रुतज्ञानात्मक उपयोग वस्तु को परस्पर विरुद्ध पक्षों में से किसी एक पक्ष के द्वारा जानने में प्रवृत्त होता है तब उसे नय कहते हैं और जब दोनों पक्षों के द्वारा जानने का प्रयत्न करता है अथवा धर्म-धर्मी का भेद किये बिना वस्तु को अखण्डरूप में ग्रहण करता है तब श्रुतज्ञानात्मक प्रमाण अथवा स्याद्वाद कहलाता है, जैसा कि भट्ट अकलंकदेव ने लघीयत्रय में कहा उपयोगौ श्रुतस्य द्वौ स्याद्वादनयसंज्ञितौ । स्याद्वादः सकलादेशो नयो विकलसङ्कथा ।। ३२ ।। उपयोगरूप होने के कारण नय को दृष्टि या नेत्र की उपमा दी गयी है। निश्चय और व्यवहार नय भी श्रुतज्ञानोपयोग के भेद हैं। इनके द्वारा वस्तु के परस्परविरुद्ध धर्मों का तथा वे वस्तु के मौलिक धर्म हैं या औपाधिक, वस्तु की सत्ता के भीतर हैं या बाहर, वस्तु के नियतस्वलक्षण हैं अथवा आरोपित, इत्यादि विशेषताओं का बोध होता है। वर्तमान में निश्चय और व्यवहार नय स्वाध्यायियों के बीच बहुचर्चित विषय हैं। बहुचर्चित इसलिए बन गये हैं कि आधुनिक विद्वानों ने कतिपय सन्दर्भो में इन नयों की परस्परविपरीत व्याख्याएँ की हैं और उन व्याख्याओं के आधार पर वस्तुस्वरूप का भी अनेकत्र परस्परविपरीत प्रतिपादन किया है जिससे दो प्रतिकूल विचारधाराएँ चल पड़ी हैं और इनका इतना अधिक प्रचार हुआ है कि दिगम्बरजैन मतावलम्बी भीतर ही भीतर दो वर्गों में बँट गये हैं। इन परस्परविरोधी विचारधाराओं से आविष्ट होने के कारण शास्त्रसभाओं में प्राय: अपने मत का पोषण और प्रतिपक्षी मत के खण्डन की प्रधानता रहती है। इसीलिए स्वाध्यायियों के बीच ये नय चर्चा के आम विषय होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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