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________________ भूमिका : ८५ जैनमेघदूतम् की कथावस्तु जैन धर्म के बाईसवें तीर्थंकर, करुणा के ज्वलन्त-जीवन्त प्रतीक भगवान् श्रीनेमिनाथ के जीवन-चरित से सम्बन्धित है। महाभारत काल में इनका प्रादुर्भाव हुआ था । इन्होंने यदुवंश में जन्म ग्रहण कर अपनी करुणा की परम पुनीत धारा द्वारा सृष्टि के कण-कण को अभिसिञ्चित किया । श्रीनेमि अन्धकवृष्णि के ज्येष्ठ लड़के समुद्रविजय के पुत्र एवं राजनीति-धुरन्धर भगवान् श्रीकृष्ण के चचेरे भाई थे । जहाँ योगपुरुष श्रीकृष्ण ने राजनीति की शिक्षा दी, वहाँ श्रीनेमि ने प्राणिमात्र पर करुणा की शीतल-रश्मियों की वर्षा की। समुद्रविजय ने अपने पुत्र श्रीनेमि का---जो सोन्दर्य एवं पौरुष के अजेय स्वामी थे-विवाह महाराज उग्रसेन की रूपसी एवं विदुषी पुत्री राजुलमती (राजीमती या राजुल) से करना निश्चित कर लिया । वैभव-प्रदर्शन के उस युग में महाराज समुद्रविजय अनेक बारातियों को लेकर पुत्र नेमिनाथ के विवाहार्थ गये। जब बारात वध के नगर “गिरिनगर" पहँची तब वहाँ पर बँधे पशुओं की करुण चीत्कार ने नेमिनाथ की जिज्ञासा को कई गुना बढ़ा दिया। अत्यन्त उत्सुकतावश जब श्रीनेमि ने पता लगाया तब उन्हें ज्ञात हुआ कि ये सारे पशु बारात के भोजनार्थ लाये गये हैं। इन सभी पशुओं को काटकर उनके आमिष से विविध भॉति के व्यञ्जन बारातियों के निमित्त बनाये जायेंगे। यह बात ज्ञात होते ही श्रीनेमि के प्राण अत्यधिक मानसिक-उद्वेलन के कारण काँप उठे और उनकी भावना करुणा की अजस्र अश्रुधारा में परिवर्तित हो प्रवाहित हो उठी । उस समय ऐसा प्रतीत हुआ, जैसे करुणा-सिन्धु में ज्वार उत्पन्न हो गया हो । करुणापूरित उनके अन्तर्मानस में अनेकानेक प्रश्न आलोडित होने लगे कि जिस संसार में अपने भोजन के लिए ही निरीह पशुओं की बलि दी जाती है, तो भला उसकी अमङ्गलता में कैसा सन्देह ? इसका निदान यह कि उन्होंने निश्चय कर लिया कि विवाह बन्धन में बंधने की अपेक्षा क्यों न सर्वश्रेयस्कर इस निष्करुण संसार को ही त्याग दिया जाये और इस विचार के साथ ही श्रीनेमि इस दुःखमय संसार का त्यागकर तपस्या के संकल्प के साथ वन-कानन की ओर मुड़ गये। परन्तु इधर कल्पना भी नहीं की जा सकती थी कि उस समय हल्दीचढ़ी, मेंहदी-रची, वस्त्राभूषणों से सुसज्जित एवं विवाह-हेतु प्रस्तुत नववधू के रूप और विवाह की इस प्रकार की असफलता ने राजीमती के हृदयसिन्धु में हाहाकार के कितने चक्रवातों को एक साथ उत्पन्न किया होगा? इसके पूर्व में अपने प्रिय की प्राप्ति के प्रति उसने अपने आन्तर-प्रदेश में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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