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________________ काव्य-परिचय जैनमेघदूतम् विरह को यदि शृङ्गार-शैल का सर्वोच्च शिखर कहा जाय तो इसमें कोई अत्युक्ति न होगी। यही एक कारण है जो कि शृङ्गारी कवि विरहप्रधान काव्य की रचना में जितने सफल हो सके हैं, उतने अन्य किसी साहित्य-विधा की काव्य-रचना में नहीं। साहित्य में विरह ने आज अपना एक ऐसा अद्वितीय स्थान सुनिश्चित कर लिया है कि साधारण समाज में प्रचलित लोक-गीतों से लेकर खण्डकाव्यों एवं महाकाव्यों तक इसके चित्रण में जितनी प्रवीणता एवं पूर्णता परिलक्षित होती है, उतनी प्रवीणता या पूर्णता किसी अन्य काव्य-विषय में नहीं । पूर्व परिचय : विरह-काव्य तो अनेक लिखे गये, पर अद्यावधिपर्यन्त संस्कृत काव्यसाहित्य के क्षेत्र में जितनी प्रसिद्धि कालिदास के मेघदूत काव्य की है, उतनी अन्य किसी भी काव्य की नहीं। यह उसी के प्रभाव का प्रतिफल है कि आज तक सौ से भी अधिक कवियों ने मेघदूत के अनुकरण पर अपने स्वतन्त्र काव्य रचे या फिर समस्यापूर्ति के ढंग पर कालिदासीय मेघदूत काव्य का अनुकरण किया है । कवि कालिदास की इस अमरकृति मेघदूत के अनुकरण पर ही जैन कवि आचार्य मेरुतुङ्ग ने एक स्वतन्त्र काव्य के रूप में जैनमेघदूतम् काव्य की रचना की है, फिर भी यह काव्य कालिदास के मेघदूत से सर्वथा भिन्न ही है। ___ जेन दूतकाव्य-परम्परा में उपलब्ध प्रायः अन्य दूतकाव्यों की भाँति इसमें समस्यापूर्ति नहीं की गयी है। कालिदासीय मेघदूत के अनुकरण के रूप में मात्र मन्दाक्रान्ता वृत्त ही दृष्टिगत होता है । सम्पूर्ण काव्य चार सर्गों में विभक्त है। जिसके प्रथम सर्ग में पचास, द्वितीय सर्ग में उनचास, तृतीय सर्ग में पचपन तथा चतुर्थ सर्ग में बयालीस श्लोक हैं। नायिका राजीमती मेघ को दूत बनाकर उसे काव्य-नायक (अपने पति श्रीनेमि) के पास भेजती है, इसी कारण इस काव्य का नाम मेघदूत है। परन्तु यह दूतकाव्य जैन धर्म के बाईसवें तीर्थंकर श्रीनेमिनाथ के जीवन-चरित पर आधारित होने के कारण एवं एक विद्वान् जैन आचार्य द्वारा रचित होने के कारण ही इस दूतकाव्य को "जनमेघदूतम्" कहा गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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