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________________ ८२ : जेनमेघदूतम् है। देवद्रव्य का नाश अथवा दुर्व्यय करने वाले मनुष्य किस प्रकार दुःख भोगते हैं, वह इस कथा में प्रत्यक्षीकृत किया गया है। (२७) सुश्राद्ध कथा : इस ग्रन्थ की भी रचना आचार्य श्री के ही द्वारा हुई है', पर ग्रन्थ के विषय में कोई विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं (२८) चतुष्कवृत्ति : ४९३ श्लोक-परिमाण के इस व्याकरण-सम्बन्धी संस्कृत ग्रंथ में विभिन्न व्याकरणिक विषयों पर चर्चा की गयी है। (२९) अंगविद्योद्धार : इस ग्रन्थ का उल्लेख भी 'मेरुतुङ्गसूरि रास' में तथा 'अंचलगच्छदिग्दर्शन'३ में किया गया है। (३०) ऋषिमण्डलस्तव : सत्तर संस्कृत की कारिकाओं में निबद्ध इस स्तव में ऋषियों की स्तुति को गयी होगी, ऐसा प्रतीत होता है। इस रचना का भी उल्लेख श्री पार्श्व ने किया है। (३१) पट्टावली : इस पट्टावली का नाम भी श्री पाश्वं ने आचार्य श्री की रचनाओं में रखा तो अवश्य है परन्तु इसकी भाषा, घटना आदि विविध विचारों के आधार पर शंका के साथ ही यह विचार व्यक्त किया है कि यह आचार्य श्री की ही रचना है।" ___ इसके अतिरिक्त श्री पार्श्व ने उक्त स्थल पर ही आचार्य श्री द्वारा रचित अन्य निम्न ग्रन्थों के नामों का भी उल्लेख किया है। -(३२) भाव कर्म प्रक्रिया; (३३) लक्षणशास्त्र; (३४) राजीमती-नेमि सम्बन्ध; (३५) वारिविचार और (३६) कल्पसूत्रवृत्ति ।। इस प्रकार आचार्य श्रीमेरुतुङ्ग सूरि जी द्वारा प्रणीत छत्तीस ग्रंथों का उल्लेख विविध साक्ष्य-ग्रंथों के आधार पर उपलब्ध होता है । परन्तु इस ग्रन्थ-सख्या में कुछ ग्रंथ तो ऐसे हैं, जिनका अन्य ग्रंथों में मात्र नामोल्लेख भर ही हुआ है तथा उनकी स्थिति के प्रति शंका भी व्यक्त की गयी है। साथ ही इनमें से अधिकांश उपलब्ध ग्रंथ भी अपनी मूल अवस्था में ग्रंथभण्डारों में ही पड़े हुए हैं । शेष कुछ ही ग्रन्थ प्रकाश में अब तक आ सके १. अंचलगच्छदिग्दर्शन : श्रीपार्श्व, पृ० २२३ । २. वही, पृ० २२३ । ३. वही, पृ० २२३ । ४. वही, पृ० २२३ । ५. वही, पृ० २२३ । ६. वही, पृ० २२३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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