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________________ ८० : जैनमेघदूतम् (११) नमुत्थणं टोका : 'चैत्यवन्दन विधि' में 'नमुत्थणं' ग्रन्थ के सूत्रों पर वृत्ति के रूप में इस ग्रन्थ की रचना की गयी है। (१२) जीरावल्ली पार्श्वनाथ स्तव : इस स्तव में मूल में ११ श्लोक थे, पश्चात् ३ श्लोक अतिरिक्त जोड़ दिये जाने पर यह १४ श्लोक परिणाम का संस्कृत-स्तव है, जिसकी रचना आचार्य श्री ने लोलाइड नगर में सर्प-विष के निवारण हेतु किया था। इसका आदि है-ॐ नमो देवदेवाय । विक्रम संवत् १७२४ में प्रशिष्य पुण्यसागरजी ने इस स्तव की व्याख्या की थी। इस का अपरनाम "त्रैलोक्यविजय" महामन्त्र है। अचलगच्छ में इस मन्त्र का पाठन-पाठन में अत्यधिक महत्त्व है। (१३) सूरिमन्त्रकल्प सारोद्धार : ५५८ श्लोक-परिमाण के इस संस्कृत भाषा में निबद्ध मन्त्र-शास्त्र विषयक ग्रन्थ की रचना भी आचार्य श्री ने ही की है। (१४) संभवनाथ चरित्र : इस ग्रन्थ की रचना आचार्य श्री ने विक्रम संवत् १४१३ में की है। (१५) सप्ततिभाष्य टीका: यह एक कर्म-ग्रन्थ है। इसकी रचना विक्रम संवत् १४४९ में आचार्य श्री ने की थी। इस ग्रन्थ-रचना की प्रेरणा आचार्य श्री को अपने गुरुबन्धु मुनिशेखरसूरि जी द्वारा मिली। संस्कृत भाषा में रचित यह ग्रन्थ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। ग्रन्थ की प्रशस्ति से प्रतीत होता है कि यह एक महाग्रन्थ था काव्यं श्री मेघदूताख्यं षड्दर्शनसमुच्चयः वृत्तिर्बालावबोधाख्या धातुपरायणं तथा। एवमादिमहाग्रन्थनिर्माण परायणाः चतुराणां चिरं चेतश्चमत्काराय येऽन्वहम् ॥ (१६) शतपदी सारोद्धार : इसका अपरनाम 'शतपदी समुद्धार' है। विक्रम संवत् १४५६ में आचार्य श्री ने इस ग्रन्थ की रचना की है। आचार्य धर्मघोषसूरि द्वारा मल रचित शतपदी का आचार्य श्री ने इस ग्रन्थ में समुद्धार किया है। अतएव इसको उपर्युक्त नाम दिया गया (१७) जेसाजी प्रबन्ध : इस ऐतिहासिक प्रबन्ध के विषय में शंका है। श्रीपाल ने इसका भी उल्लेख किया है। १. अंचलगच्छदिग्दर्शन : श्रीपार्श्व, पृ० २२० । २. वही, पृ० २२२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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