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भूमिका : ७९ (४) धातुपारायण : संस्कृत-व्याकरण की धातुओं का ज्ञान कराने वाला यह ग्रन्थ भी विक्रम संवत् १४४९ के पूर्व ही रचा गया है, क्योंकि सप्ततिभाष्य टीका की प्रशस्ति में इस ग्रन्थ का भी उल्लेख किया गया है।
(५) रसाध्याय टीका : इस ग्रन्थ का अपरनाम 'रसालय' है । कंकालय नामक एक जैनेतर आचार्य द्वारा प्रणीत इस रसाध्याय ग्रन्थ की आचार्य श्री ने विक्रम संवत् १४४३ में टीका रची थी । वैद्यक-शास्त्र का इसमें गहन अध्ययन किया गया है ।
(६) सप्ततिभाष्य टीका : जैन कर्म-सिद्धान्त का इस ग्रन्थ में विचार किया गया है । ग्रन्थ विक्रम संवत् १४४९ में रचा गया है। संस्कृत भाषा में निबद्ध यह ग्रन्थ आचार्य श्री की विद्वता का परिचायक है।
(७) लघुशतपदी : इसका अपरनाम 'शतपदी सारोद्धार' है । संस्कृत भाषा में १५७० श्लोकों में निबद्ध श्रीधर्मघोषसरि के इस मूल ग्रन्थ पर आप श्री ने अपने पैंतालिस विशेष उपयोगी विचार तथा सात नये विचार प्रस्तुत किये हैं। आपश्री ने इस ग्रन्थ का अपने नवीन विचारों के आधार पर परिष्कार भी किया है, इसी कारण इस ग्रन्थ का अपरनाम 'शतपदी सारोद्धार' भी दिया गया है
तत्पट्टकमले राजमराला इव सांप्रतं थी मेरुतुङ्गसूरोंद्रां जयंति जगतीतले ॥१॥ सुकुमारमतीनां तैः सुखायः व्यरचि स्वयम्
शतपद्याः समुद्धारस्त्रिपंचाशीतिवत्सरे ॥२॥ (८) कामदेव नृपति कथा : ७४९ श्लोक परिमाण की इस संस्कृत गद्यकृति की रचना कवि ने विक्रम संवत् १४६९ में की थी, ऐसा इस ग्रन्थ की ग्रन्थ-प्रशस्ति में उल्लिखित मिलता है
एवं श्रीकामदेवक्षितिपतिचरितं तत्त्वषड्वाद्धिभूमिसंख्ये।
श्रीमेरुतुङ्गाभिधगणगुरुणा वत्सरे . प्रोक्तमेतत् ॥ (९) पद्मावती कल्प : आचार्य श्री द्वारा ही प्रस्तुत ग्रन्थ की भी रचना हुई है, ऐसे उल्लेख प्राप्त होते हैं।'
(१०) शतकभाष्य : सप्ततिका भाष्य वृत्ति का ही यह अपरनाम है, ऐसा प्रतीत होता है । परन्तु श्री पार्श्व ने इसे भी आचार्य श्री के एक ग्रन्थ की संख्या दी है। १. अंचलगच्छदिग्दर्शन : श्रीपार्श्व, पृ० २२३ ॥ २. वही, पृ० २२३ ।।
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