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भूमिका : ७७ पद स्थापित किये एवं दीक्षित किये । इनमें श्री जयकीर्तिसूरि मुख्य पट्टधर थे, इसके अतिरिक्त माणिक्यशेखरसूरि, माणिक्यसुन्दरसूरि, मेरुनन्दनसूरि, रत्नशेखरसूरि, उपाध्याय धर्मानन्दगणि आदि अनेक विद्वान् उपाध्याय व मुनि थे । आचार्य मेरुतुङ्गसूरि के संघ में विशाल साध्वी - परिवार भी था । साध्वी श्री महिमाश्रीजी को आचार्य श्री ने " महत्तरा " पद पर स्थापित किया था । इसके अतिरिक्त साध्वी श्री मेरुलक्ष्मी श्री जी का भी उल्लेख हुआ है ।
स्वर्गवास :
इस प्रकार आचार्य मेरुतुङ्गसूरि पृथ्वीतल पर अविरत विहार व समाज का उपकार करते हुए, अन्त में विक्रम संवत् १४७१ की मार्गशीर्ष पूर्णिमा, दिन सोमवार को अपराह्न उत्तराध्ययनसूत्र का श्रवण करतेकरते समाधिपूर्वक कालधर्म का पालन कर गये । परन्तु अचलगच्छ के इतिहास में आचार्य श्रीमेरुतुङ्गसूरि का यशस्वी योगदान सदैव स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा ।
रचनाएं :
आचार्य मेरुतुङ्गसूरि ने साहित्यक्षेत्र में भी बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है । इनके द्वारा रचित साहित्य, जैन संस्कृति के लिए तो प्रभावी सिद्ध ही हुआ, साथ ही समग्र भारतीय साहित्य में भी अपना मूलभृत स्थान रखता है । आचार्य श्री के ग्रन्थों की संख्या के विषय में विभिन्न विद्वानों
भिन्न-भिन्न ही सम्मति दी है । डा० रामकुमार आचार्य' ने इनके आठ ग्रन्थों का ही उल्लेख किया है । इनके साथ ही डा० नेमिचन्द्र शास्त्री ने भी करीब-करीब यो संख्या अपने ग्रन्थ में दी है । इसी बीच श्री भंवरलाल नाहटा ने अपने एक लेख में " मेरुतुङ्गसूरिरास " के आधार पर आचार्य श्री द्वारा रचित ग्रन्थों की संख्या बारह दी है ।
मुनि कलाप्रभसागर जी ने आचार्य श्री के ग्रन्थों की उन्नीस दी है, वहीं 'अंचलगच्छ दिग्दर्शन' में श्री पार्श्व ने
१. संस्कृत के सन्देशकाव्य : डा० २. संस्कृत काव्य के विकास में जैन कवियों का योगदान :
रामकुमार आचार्य, पृ० १९४-१९५ ।
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संख्या जहाँ आचार्य श्री
- डा० नेमिचन्द्र शास्त्री, पृ० ४८३ |
३. श्री आर्य कल्याण गौतम स्मृति ग्रन्थ : सम्पादित मुनि कलाप्रभसागरजी
द्वारा, पृ० २६ ।
४. वही, पृ० ८८-८९ ।
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