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७४ : जैनमेघदूतम्
इस दीक्षा महोत्सव पर ही आचार्य महेन्द्रप्रभसूरि ने इस नव दीक्षित मुनिकुमार का नाम " मेरुतुङ्ग" रखा ।
एक तो बाल्यावस्था, दूसरे बाल- ब्रह्मचर्य - अतएव इन दोनों के एक साथ संयोग के कारण बालमुनि मेरुतुङ्ग का विद्या अध्ययन सविधि एवं सुचारु रूप से चलता रहा । इस बाल मुनिवर को एक के पीछे एक कर समस्त सिद्धियाँ स्वयमेव प्राप्त होती गयीं । आचार्य महेन्द्रप्रभसूरि के सान्निध्य में तत्कालीन शिक्षा प्रणाली के अनुसार मुनि मेरुतुङ्ग ने अपनी बुद्धि-विचक्षणता द्वारा संस्कृत, प्राकृत तथा इनसे सम्बद्ध विविध विषयों यथा - व्याकरण, साहित्य, छन्द, अलंकार, ज्योतिष, आगम, वेद एवं पुराण प्रभृति विषयों का यथाविधि ज्ञान अर्जित कर इन समस्त विद्याओं के पारंगत पण्डित बन गए । कालक्रम से उनके चरित्र, एवं क्रियाओं का भी पूर्णतया विकास होता गया और वे शुद्ध-संयम का पालन करते हुए अपनी अमृत-सदृश कल्याणमयी वाणी से सदुपदेश व प्रवचन आदि भी देने लगे ।
ज्ञान
इस प्रकार अप्रतिम प्रतिभा से सम्पन्न मुनि मेरुतुङ्ग को आचार्य पद के सर्वथा योग्य जानकर आचार्य महेन्द्रप्रभसूरिजी ने विक्रम संवत् १४२६ पाटण नामक स्थान में "सुरि" पद से समलंकृत किया ।
इस माङ्गलिक अवसर पर संघपति नरपाल नामक श्रेष्ठी ने एक भव्य - महोत्सव का आयोजन कर विविध प्रकार के दानादि दिये। तब से मुनि श्रीमेरुतुङ्गसूरि की बहुत अधिक ख्याति बढ़ गयी और वे मन्त्रप्रभावक बन गये । उन्होंने अष्टाङ्ग योग एवं मन्त्राम्नाय आदि में भी पूर्ण महारत प्राप्त कर ली । वे देश-विदेश में इतस्ततः विचरण करते हुए अपने सदुपदेशों व प्रवचनों द्वारा भव्य जीवों एवं नरेन्द्रादिकों को प्रतिबोध देने लगे । एक बार विचरते - विचरते मेरुतुङ्गसूरि आसाउली नामक नगरी में पधारे । वहाँ यवनराज को प्रतिबोधित कर उसे अहिंसा का मार्मिक सन्देश दिया ।
अनेक प्रभावी अवदात :
विक्रम संवत् १४४४ में आचार्य मेरुतुङ्गसूरि ने लोलाइड नामक नगरी में चातुर्मास व्यतीत किया। उस चातुर्मास अवधि में मेरुतुङ्गसूरि ने राठौरवंशीय पणगर मेघराज को १०० मनुष्यों के सहित प्रतिबोधित कर धर्मदीक्षा प्रदान की । चातुर्मास अवधि में एक दिन गुजराताधिपति मुहम्मद सुल्तान अपनी यवनसेना के साथ नगर में आक्रमण करने के
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