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कवि परिचय
आचार्य मेरुतुङ्ग
संस्कृत-साहित्य में कालिदासीय मेघदूत के अनुकरण पर रचित जैन कवियों के अनेक दूतकाव्य उपलब्ध होते हैं । इन उपलब्ध जैन दूतकाव्यों में अचलगच्छ के आचार्य श्री मेरुतुङ्गसूरिकृत जैनमेघदूतम् अपना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है । इस दूतकाव्य में अन्य दूतकाव्यों के समान कवि ने समस्या-पूर्ति नहीं की है, अपितु स्वयं अपनी मौलिक प्रतिभा का स्पष्ट परिचय दिया है । कवि ने एक स्वतन्त्र कथानक को अपनी स्वच्छन्द शैली में मन्दाक्रान्ता वृत्त के आधार पर प्रस्तुत किया है । कालिदासीय मेघदूत का अनुकरण उन्होंने मात्र वृत्त निर्धारण एवं काव्य-शिल्प-विधान में किया है । मेघ को दूत निर्वाचित करना भी मेघदूत का ही अनुकरण स्पष्ट करता है, फिर भी कवि ने प्रत्यत्नपूर्वक इस काव्य को पूर्णतः स्वतन्त्र हो रखा है । काव्य का स्वतन्त्र कथानक तथा उसकी व्याकरणनिष्ठ भाषा आदि कवि की उत्कृष्ट प्रतिभा को उजागर करती हैं ।
अतः निस्सन्देह यह कहा जा सकता है कि जैनमेघदूतम् काव्य-प्रणेता आचार्य श्रीमेरुतुङ्गसूरि जी अवश्यमेव तत्कालीन साहित्य-क्षितिज के एक प्रकाशमान् नक्षत्र रहे होंगे ।
स्थितिकाल :
जैन साहित्य में मेरुतुङ्ग नामक तीन आचार्य हुए हैं, परन्तु काव्यप्रणेता के रूप में दो आचार्य ही प्रसिद्ध हैं । उनमें से प्रथम मेरुतुङ्गसूरि जो इन्द्रप्रभसूरि के शिष्य थे, प्रायः नगेन्द्रगच्छ के आचार्य थे । इन्होंने प्रबन्धचिन्तामणि नामक ऐतिहासिक ग्रन्थ विक्रम संवत् १३६१ में पूर्ण किया | इसके अतिरिक्त इनकी अन्य कृतियाँ विचारश्रेणी या स्थविरावली
१. त्रयोदशस्वब्दशतेषु चेकषष्ट्यधिकेषु क्रमतो गतेषु ।
वैशाखमासस्य च पूर्णिमायां ग्रन्थः समाप्तिंगमितो मितोऽयम् ||५| - प्रबन्ध चिन्तामणि : आचार्य मेरुतुङ्ग, ग्रन्थकार प्रशस्ति ।
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