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भूमिका : ६९ माध्यम से अपना विरह-सन्देश भेजता है। मेघदूत के ही भावों पर आधारित होने के कारण यह काव्य भी बहत ही सुन्दर बना है।
हंसतम' : कवि श्री कवीन्द्राचार्य जी सरस्वती द्वारा यह दूतकाव्य रचित है। कुल ४० श्लोकों का पूर्ण दूतकाव्य है। कथा-प्रसंग किसी प्राचीन ग्रन्थ पर आधारित न होकर स्वतन्त्र रूप से रचा गया है। काव्य में एक विरहिणी नायिका द्वारा अपने प्रिय नायक के पास एक हंस के माध्यम से विरह-संदेश भेजने की कथा वर्णित है। कवि श्री सरस्वतीजी ने अपने काव्य-चातुर्य द्वारा काव्य को अति सुन्दर बना दिया है।
हंससन्देश : रामानुज सम्प्रदाय के आचार्य, दार्शनिक एवं कवि श्री वेदान्तदेशिक जी इस दूतकाव्य के प्रणेता हैं । रचनाकाल वि० सं० १४वीं शती है। रामायण की कथा पर इस काव्य की कथा आधारित है। सीताजी की खोजकर हनुमानजी वापस आकर श्रीराम को सन्देश देते हैं। रामाचन्द्रजी युद्ध की तैयारी करने के पूर्व सीता को सांत्वना देने हेतु राजहंस को अपना दूत बनाकर लंका भेजते हैं। किसी को सन्देश भेजने का प्रयोजन उसे आश्वासन देना ही होता है। इसीलिए इस काव्य को दो आश्वासों में बाँटा गया है। प्रथम आश्वास में ६० तथा द्वितीय आश्वास में ५१ श्लोक हैं। छन्द भो मन्दाक्रान्ता ही प्रयुक्त है । काव्य का मुख्य रस विप्रलम्भ-शृङ्गार है। मेघ-सन्देश के अनुकरण पर लिखे होने के कारण उसमें कहीं भी समानता नहीं प्रतीत होती है। काव्य में मौलिकता है। राम जैसे धीरोदात्त और इतिहास-प्रसिद्ध व्यक्ति को काव्य का नायक बनाकर कवि ने अपने काव्य को विशिष्ट रूप दिया है।
हंससन्देश : काव्य के रचयिता के सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ भी ज्ञात नहीं होता। काव्य के ही अन्तिम श्लोक' से यह अनुमान किया १. श्री ए० सी० बर्नेल, लन्दन द्वारा तंजौर राजमहल के हस्तलिखित संस्कृत
ग्रन्थ-सूची के पृ० १६३ में उल्लिखित; अप्रकाशित । २. गवर्नमेण्ट प्रेस, मैसूर से तथा वी० रामास्वामी शास्त्रुलु एण्ड सन्स, मद्रास से
सन् १९३७ में एक साथ प्रकाशित । ३. त्रिवेन्द्रम् संस्कृत सीरीज से ग्रन्थ-संख्या १२९ के रूप में सन् १९३० में
प्रकाशित । अन्यं विष्णोः पदमनुपतन् पक्षपातेन हंसः पूर्णज्योतिः पदयुगजुषः पूर्णसारस्वतस्य । क्रीडत्येव स्फुटमकलुषे मानसे सज्जनानाम् मेघेनोच्चनिजरसभरं वर्षता घर्षितेऽपि ॥१०२॥
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