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६४ जेनमेषदूतम्
वाङ्मण्डनगुणदूतम् : श्री वीरेश्वर द्वारा प्रणीत इस दूतकाव्य में कवि ने अपने सूक्त गुण को दूत बनाकर एक राजा के पास आश्रय प्राप्त करने हेतु भेजा है । काव्य अतीव चमत्कारक है ।
वातदूतम् ' : इस दूतकाव्य के काव्यकार कवि श्री कृष्णनाथ न्याय पंचानन हैं । इस काव्य में वात अर्थात् वायु द्वारा दौत्य कर्म सम्पादित करवाया है । जब सीताजी, रावण द्वारा अपहृत होकर अशोकवाटिका में आती हैं, तब उन्हें श्रीराम का वियोग बहुत सताता है । इसलिए अपने मन को कुछ शान्त करने के उद्देश्य से सीताजी वाटिका में प्रवाहित हो रही वायु (वात) को ही अपना दूत बनाकर उसके द्वारा अपना सन्देश भेजती हैं ।
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काव्य पूरे १०० श्लोकों में निबद्ध है । सम्पूर्ण काव्य मन्दाक्रान्ता छन्द रचा गया है । काव्य को भाषा तथा रचना-शैली बहुत सुन्दर है । काव्य का काल १८वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध प्रतीत होता है ।
वायुदूतम् : इस दूतकाव्य के कर्ता के विषय में किंचिदपि ज्ञान नहीं प्राप्त होता है । प्रो० मिराशी ने अपनी पुस्तक में इसका उल्लेख किया है ।
विटदूतम् ' : इस दूतकाव्य के बारे में भी कोई विशेष जानकारी नहीं मिलती है । कवि का नाम भी अज्ञात ही है । काव्य की एक प्रति सुरक्षित है।
विप्रसन्देश " : कृष्ण-कथा पर आधारित इस महामहोपाध्याय श्रीलक्ष्मण सूरि ने की है । इसमें विप्र को अपना दूत बनाकर उसके द्वारा प्रियतम विरह- सन्देश भेजा है ।
१. डा० जे० बी० चौधरी द्वारा कलकत्ता से सन् १९४१ में प्रकाशित |
२. इलिशियस प्रेस, नं० ९ काशी घोष मार्ग, कलकत्ता से सन् १८८६ में
प्रकाशित ।
दूतकाव्य की रचना रुक्मिणो ने एक वृद्ध श्रीकृष्ण के पास अपना
३. कालिदास : प्रो० मिराशी, पृ० २५८ ।
४. अर्ष लाइब्रेरी, विशाखापट्टनम् ; अप्रकाशित ।
पूर्णचन्द्रोदय प्रेस, तंजौर से सन् १९०६ में प्रकाशित ।
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