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६२ : जैनमेघदूतम् .. मेघदौत्यम्' : मेघदूत के ही अनुकरण पर इस दूतकाव्य को भी रचना की गयी है। श्रीत्रैलोक्यमोहन गृह इस काव्य के रचनाकार हैं। मेघदूत के ही समान मन्दाक्रान्ता छन्द में ही इस काव्य की भी रचना हुई है। एक यक्ष किसी कारणवश अपनी प्रिया से विरक्त हो एकान्त में जीवनयापन कर रहा था। प्रिया के वियोग से व्यथित मन वाला वह यक्ष, अपनी प्रिया के पास सन्देश भेजने का विचार करता है। अपने सामने आकाश में छाये मेघ को देखकर वह उसी को अपना दूत बनाकर अपनी प्रिया के पास उसे भेजता है।
काव्य में नवीन शब्दों के प्रयोग के साथ मेघदूत के भी पदों का प्रयोग मिलता है। काव्य के कवि ने अपनी काव्य-निपुणता प्रदर्शनार्थ प्रारम्भ में मंगलाचरणस्वरूप एकाक्षर एवं द्वयक्षरात्मक तीन श्लोक दिये हैं । काव्य का सम्पूर्ण अंश नहीं उपलब्ध है, फिर भी काव्य अद्वितीय है।
मेघप्रतिसन्देश : दक्षिण भारत के आधुनिक कालीन कवि श्री मन्दिकल रामशास्त्री द्वारा यह दूतकाव्य रचा गया है। सन् १९२३ ई० के लगभग इन्होंने इस दूतकाव्य की रचना की है। प्रस्तुत काव्य में कवि ने मेघदूत की कथा को ही पल्लवित किया है। यक्ष के सन्देश को लेकर मेघ अलकापुरी पहुँचता है । वहाँ वह यक्ष की प्रिया को यक्ष का सन्देश सुनाता है। प्रिय के सन्देश को सुनकर उसे विरह-व्यथा के कारण अति वेदना होती है । अतः हाथ के सहारे से किसी प्रकार उठकर धीरे-धीरे वह मेघ से वार्तालाप करती है तथा यक्ष के पास अपना प्रतिसन्देश ले जाने की प्रार्थना करती है।
इस काव्य में मेघ द्वारा यक्ष के सन्देश को सुनकर उसकी प्रिया मेघ के ही द्वारा यक्ष के पास अपना प्रतिसन्देश भेजती है। अतः इस काव्य का मेघप्रतिसन्देश नाम उचित ही है। काव्य में प्रथम सर्ग में ६८ एवं द्वितीय सर्ग में ९६ श्लोक हैं। मन्दाक्रान्ता छन्द भी प्रयुक्त हुआ है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि यह एक सुन्दर दूतकाव्य है।
यक्षमिलनकाव्यम् : संवत् १९वीं शती में रचा गया यह दूतकाव्य महामहोपाध्याय श्री परमेश्वर झा द्वारा प्रणीत है। इन्होंने कर्मकाण्ड,
१. जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग २, किरण २, ५० १८; अप्रकाशित । २. गवर्नमेण्ट प्रेस, मैसूर से सन् १९२३ में प्रकाशित । ३. त्रिवेन्द्रम संस्कृत सीरीज, मद्रास के ग्रन्थसंख्या १०३ के रूप में सन् १९३०
में प्रकाशित।
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