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________________ ६० : जेनमेघदूतम् चरण - न्यास की परिक्रमा कर क्रौञ्च रन्ध्र में से ओर ऊपर चलने पर कैलाश पर्वत और वहाँ से लिए यक्ष मेघ से कहता है । यक्ष अलका नगरी का वर्णन में परन्तु अत्यन्त रमणीयता के साथ एवं कल्पनावैचित्र्य के साथ करता है । निकलते हुए उत्तर की अलका नगरी जाने के बहुत कम शब्दों बाहुल्य के इस प्रकार पूर्व मेघ में यक्ष ने रामगिरि से लेकर अलका नगरी तक के मार्ग में पड़ने वाले देश, नदी, पर्वत वन, ग्राम, नगर, उपवन, मंदिर आदि का अत्यन्त रमणीय एवं चित्ताकर्षक वर्णन किया है । उत्तर मेघ में यक्ष अपनी अलकापुरी के विलासमय जीवन, वैभव एवं सुन्दरता का उदात्त वर्णन प्रस्तुत करता है । तत्पश्चात् कुबेर के प्रासाद के उत्तर भाग में अवस्थित अपने गृह तथा उसके आसपास के मनोरम दृश्यों का वर्णन कर यक्ष मेघ से गजशावक की भाँति स्वल्प शरीर धारण कर अपने गृहस्थित क्रीडाशैल पर बैठकर अपनी प्रियतमा को देखने की प्रार्थना करता है। इसी प्रसंग में यक्ष अपनी विरहिणी प्रियतमा के विरहभाव पूर्ण अनेकानेक काल्पनिक चित्रों का अंकन करता है । वह मेघ से कहता है कि “जिस समय तू मेरे घर पहुँचेगा, उस समय मेरी प्रियतमा मेरी कुशलकामनानिमित्त देवाराधना कर रही होगी अथवा विरह व्यथा से दुर्बल मेरे शरीर का अनुमान कर उसी भाव को चित्रित करने वाला मेरा चित्र खींच रही होगी, या पिंजड़े में बैठी हुई मीठी बोली बोलने वाली मैना से पूछ रही होगी - 'अरी रसिके ! क्या तुझे स्वामी की याद कभी आती है ? तुझे तो वे बहुत प्यार करते थे' । या वह मैले कपड़े पहने अपनी गोद में वीणा रखकर मेरे सम्बन्ध में रचे हुए किसी गीत को गा रही होगी और आँसुओं की झड़ी से भीगे हुए वीणा के तारों को पोंछकर पूर्वाभ्यस्त मूर्छना (स्वरलहरी) को बार-बार भूल जाती होगी, या भूमि पर बिखरे फूलों को गिन-गिन कर वह मेरी शाप की अवधि के दिनों को गिनती होगी । वह विरह से अत्यन्त कृश हो गयी होगी | अभ्यंग स्नान न करने से उसके केशों की बुरी दशा हुई होगी । वे केश रूखे हो गये होंगे और कपोलों तक लटक रहे होंगे । वस्त्र और अलंकार का पहनना जिसने छोड़ रखा हो, अत्यन्त दुःख से जो पर्यंक पर लेटी हुई हो, ऐसी मेरी प्रिया को देख तुझे भी उसकी इस दशा पर तरस आयेगा और तू भी नूतन जलकणरूपी अश्रु बहायेगा । उस समय यदि मेरी प्यारी सो गई हो तो एक पहर तक गर्जना न कर उसके जगने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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