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भूमिका : ५९ आते ही उसका विरहातुर हृदय अत्यन्त आकुल हो उठता है । उसे अपनी पत्नी की याद सताने लगती है । वह बेचैन हो उठता है, तभी आकाश में उत्तर दिशा की ओर जाता हुआ एक मेघ उसको दिखलायी पड़ जाता है । उस अप्रत्याशित मेघदर्शन से वह कुछ चिन्तातुर हो उठता है, परन्तु शीघ्र ही बड़े प्रेमभाव से उस मेघ का स्वागत करता है, उसके कुल, शील एवं सामर्थ्य की प्रशंसा करता है । तत्पश्चात् उसको दूत रूप में नियुक्त कर उससे अलका नगरी जाकर अपनी प्रियतमा से अपना कुशल-क्षेमवृत्त भिजवाने का निश्चय करता है । उस समय उस कामार्त यक्ष के मन में ऐसा तनिक भी नहीं आया कि धूम्र, अग्नि, जल, वायु आदि तत्त्वों से निर्मित यह अचेतन मेघ भला मेरा सन्देश मेरी प्रियतमा तक ले भी कैसे जायेगा । यक्ष ने नवविकसित कुटज - पुष्पों से मेघ की पूजा-स्तुति की और तब शुभ निमित्तों, पत्नी के जीवित तथा पतिव्रता बने रहने की आशा एवं कैलाश पर्वत तक हंसों के साथ यात्रा करने के आनन्द से मेघ को यात्रा के लिए प्रोत्साहित करता है तथा रामगिरि पर्वत से अलकापुरी तक के रमणीय मार्ग का अति विस्तृत एवं मनोरम वर्णन करता है ।
सर्वप्रथम रामगिरि से उत्तर की ओर मालप्रदेश, वहाँ से कुछ पश्चिम की तरफ मुड़कर फिर उत्तर की ओर चलने पर आम्रकूट पर्वत, विन्ध्याचल की प्रचण्ड चट्टानों में बिखरी नर्मदा का वर्णन कर दशार्ण देश की राजधानी और वेत्रवती नदी के तट पर स्थित विदिशा नगरी का मार्ग यक्ष ने मेघ से बताया है । तदनन्तर यक्ष, वहाँ से नीचैगिरि नामक किसी पर्वत पर विश्राम करने के बाद वननदी, निर्विन्ध्या तथा सिन्धु नदियों पर से होकर अवन्ती देश और उज्जयिनी जाने का मेघ से आग्रह करता है ।
उज्जयिनी के गगनचुम्बी प्रासादों में विश्राम करने के बाद गन्धवती नदी के सन्निकट भगवान् महाकालेश्वर के मन्दिर में सान्ध्यकालीन आरती के समय कुछ देर रुकने और फिर वहीं रात्रि व्यतीत कर प्रातः आगे बढ़ने का निर्देश यक्ष मेघ से करता है । तत्पश्चात् गम्भीरा नदी में विहार करते हुए देवगिरि पर्वत पर भगवान् कार्तिकेय पर पुष्पवर्षा करते हुए चर्मण्वती नदी तथा दशपुर जाने का निर्देश देता है । दशपुर से आगे बढ़ने का परामर्श देते हुए यक्ष मेघ को ब्रह्मावर्त एवं कुरुक्षेत्र होते हुए सरस्वती नदी जाने और फिर कनखल के समीप गंगा जी के दर्शन करते हुए हिमालय पहुँचने को कहता है । अन्त में हिमालय पर्वत पर शिवजी के
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