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भूमिका : ५३ है । अति विरह भावना से विकल होकर श्रीराम उस भ्रमर को ही अपना दूत बनाकर उसके माध्यम से सीता के पास अपना सन्देश भेजते हैं । यही कथा इस दूतकाव्य में वर्णित है । काव्य में कुल मिलाकर १२५ श्लोक मिलते हैं । उत्प्रेक्षा, अर्थान्तरन्यास आदि अलंकार भी स्फुट रूप से आते हैं । सारांश में यह काव्य संस्कृत-साहित्य का एक चिरप्रसिद्ध काव्य है ।
भ्रमर सन्देश' : दक्षिण भारत, मद्रास के कवि श्री महालिंग शास्त्री द्वारा यह दूतकाव्य रचा गया है । काव्य की कथा इन्द्रदेव से सम्बन्धित है । काव्य में देवराज इन्द्र द्वारा भ्रमर को दूत बनाकर इन्द्राणी के पास अपना विरह - सन्देश भेजा गया है ।
भृंगदूतम् ' : प्रस्तुत दूतकाव्य के रचयिता श्रीकृष्णदेव जी हैं । जिनका काल विक्रम संवत् को १८वीं शती का प्रथम भाग निश्चित किया गया है । कृष्ण-कथा से ही काव्य की कथा गृहीत है । श्रीकृष्ण के विरह में अति व्याकुल एक गोपी एक दिन सूर्योदय के समय गूंजते हुए एक भ्रमर को ही अपना दूत बनाकर उसके द्वारा अपना सन्देश श्रीकृष्ण के पास भेजती है ।
यद्यपि मेघदूत के अनुकरण पर ही इस काव्य की भी रचना हुई है, फिर भी इस काव्य में मौलिकता कम नहीं है ।
भृंगसन्देश : स्वतन्त्र कथा पर आधारित प्रस्तुत दूतकाव्य, श्री वासुदेव कवि की मात्र शृङ्गारिक रचना है। इसमें दौत्य - कर्म भ्रमर द्वारा सम्पादित है । काव्य में प्रिया वियुक्त नायक ने अपनी प्राणप्रिया नायिका के पास भौंरे के माध्यम से अपना सन्देश भेजा है । इस काव्य में कुल १९२ श्लोक हैं । १८ वीं शताब्दी में कवि ने काव्य को रचा है ।
भृंगसन्देश : श्री गंगानन्द कवि द्वारा प्रणीत यह अपने नाम का दूसरा दूतकाव्य है । यह काव्य १५ वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में रचा गया है ।
१. साहित्य चन्द्रशाला, तंजौर से सन् १९५४ में प्रकाशित ।
२. नागपुर विश्वविद्यालय पत्रिका, संख्या ३, दिसम्बर, सन् १९३७ में प्रकाशित ।
३. त्रिवेन्द्रम संस्कृत सीरीज से संख्या १२८ के रूप में संवत् १९३७ में प्रकाशित ।
४. ओफेक्ट के कैटालोगस कैटालोगोरम, भाग २, संख्या ३० पर उल्लिखित; अप्रकाशित |
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