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४६ : जैनमेघदूतम्
बनाया गया है। सागर पर पुल बाँधने हेतु श्रीराम सागर तट पर पहुँचते हैं। सीताजी अशोक वाटिका में थीं । यह समाचार सीताजी को मिलता है कि श्रीरामचन्द्र सागर तट पर पुल बाँधने हेतु आये हैं । इस समाचार को जानने पर सीताजी के हृदय में तीव्र मिलनोत्कण्ठा उत्पन्न होती है । पर दूर होने से, यह सम्भव न हो सकने के कारण, वह अशोकवाटिका में ही विद्यमान एक कमलपुष्प को देखकर, उसी के माध्यम से अपना विरह सन्देश श्रीराम के पास भेजती हैं । इस काव्य में कुल ६२ श्लोक हैं । संक्षेपतः कहा जा सकता है कि प्रस्तुत काव्य एक पूर्ण दूतकाव्य के इस परम्परा में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है ।
रूप में
पदाङ्कदूतम्' : महामहोपाध्याय कृष्णसार्वभौम द्वारा विरचित प्रस्तुत दूतकाव्य बंगाल के संस्कृत दूतकाव्यों में एक छोटा सा काव्य होने पर भी अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है । काव्यकार ने काव्य के अन्त में लिखा है
शाके सायक-वेद षोडशमिते श्रीकृष्णशर्मापंयन् आनन्दप्रद नन्दनन्दनपदद्वन्द्वारविन्दं हृदि । चक्रे कृष्णपदाङ्गदूतमखिलं प्रीतिपदं श्रृण्वतां धीर श्रीरघुरामरायनृपतेराज्ञां गृहीत्वादरात् ॥४६॥
इस श्लोक से प्रमाणित होता है कि इस काव्य की रचना शक् संवत् १६४५ में हुई थी । पद के चिह्न को इस काव्य में दूतरूप में चुना गया है । श्री कृष्ण के विरह से व्याकुल तथा उन्मत्त सी घूमती हुई कोई एक गोपबाला अपने घर से यमुनातट के किसी एक कुंज में जाती है । वहाँ कृष्ण को न पाकर वह मूच्छित हो जाती है । मूर्च्छा टूटने पर कुंज के पास कुलिश, कमल और रथ आदि के चिह्नों से युक्त श्रीकृष्ण के चरणचिह्न, उसको दिखायी पड़ते हैं । उसी समय मेघ की गर्जनध्वनि से वह श्रीकृष्ण के वियोग में और भी उन्मत्त हो जाती है । इसलिए वह वहाँ उपस्थित उन पदचिह्नों को ही, उससे दूत कार्य सम्पादित कराने के उद्देश्य से, अपनी प्रार्थना सुनाती है । इस प्रकार वह गोपी अपना विरहसन्देश श्रीकृष्ण के पास उन पदचिह्नों द्वारा ही भेजती है ।
१. श्री जीवानन्द विद्यासागर द्वारा उनके काव्यसंग्रह के प्रथम भाग के तृतीय संस्करण में सन् १८८८ में कलकत्ता से प्रकाशित ।
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