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४४: जैनमेघदूतम्
इस काव्य-परम्परा में अपने नाम का दूसरा दूतकाव्य है । इस काव्य का रचना - काल शक संवत् १७०६ निर्धारित किया जाता है । यह काल काव्य के ही इस श्लोक से स्पष्ट होता है
श्रीवैद्यनाथो द्विजो
प्रियकलानाथाङ्घ्रिपाथोरुहम् ।
शाके तर्कन भोहयेन्दु गणिते गोपी कैरवकानन ध्यायंस्तच्चरणारविन्दरसिकः प्रज्ञावतां प्रीतये प्रीत्यै तस्य चकार चारु तुलसीदूताख्यकाव्यं महत् ॥ काव्य को देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि यह काव्य, प्रथम तुलसीदूत काव्य के पूरे-पूरे अनुकरण पर लिखा गया है। दोनों काव्यों की भाषाशैली, रचना - वैशिष्ट्य सब समान सा ही प्रतीत होता है । पर दोनों में भिन्नता इसी बात की मिलती है कि दोनों काव्यों के काव्यकार एवं रचनाकाल भिन्न भिन्न हैं । काव्य बहुत सुन्दर है, पर इसका अभी तक पूर्णांश उपलब्ध नहीं हुआ है
दात्यूहसन्देश' : इस सन्देशकाव्य के बारे में कुछ भी अधिक जानकारी नहीं प्राप्त है । काव्य के रचयिता श्री नारायण कवि जी हैं | काव्य का मात्र उल्लेख ही उपलब्ध होता है ।
दूतवाक्यम् : दूतकाव्य परम्परा में आदिकाव्य "रामायण" के बाद श्रीभासरचित इस दूतकाव्य की ही गणना है । काव्य की कथा विप्रलम्भ शृङ्गार पर आधारित न होकर राजनीति से सम्बन्धित है । युधिष्ठिर के दूत श्री कृष्ण दुर्योधन के दरबार में सन्धि प्रस्ताव हेतु जाते हैं । लेकिन दुर्योधन इसे नहीं स्वीकार करता है, प्रत्युत उन्हें अपमानित करता है । अतः श्रीकृष्ण उसे विनाश एवं महाभारत की पूर्व सूचना देकर वापस चले जाते हैं । काव्य बहुत ही सुन्दर है ।
दूतघटोत्कच: दूतवाक्यम् के ही रचयिता श्रीभास ही इस दूतकाव्य के भी रचनाकार हैं । इसमें भी कथा प्रसंग राजनीति प्रेरित ही है, शृङ्गार आदि पर आधारित नहीं । महाभारत का युद्ध जब अवश्यम्भावी हो जाता है तब श्रीकृष्ण घटोत्कच को दूत बनाकर दुर्योधन के पास भेजते हैं । वह वहाँ पहुँचकर विनाश की स्थिति से दुर्योधन को अवगत कराता है, पर दुर्योधन कुछ नहीं सुनता है । तब घटोत्कच आदि भी युद्ध हेतु तैयार होते हैं । काव्य बहुत अच्छा है ।
१. त्रावनकोर की संस्कृत हस्तलिखित ग्रन्थसूची के ग्रन्थ संख्या १९५ पर द्रष्टव्य; अप्रकाशित ।
२. प्रकाशित ।
३. प्रकाशित ।
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