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४० : जैनमेच दूतम्
में व्याप्त था ।" इस काव्य में गोपिकाओं ने धूलि के माध्यम से श्रीकृष्ण के पास सन्देश भेजा है । काव्य का नामकरण दूत पर आधारित न होकर दूत- सम्प्रेषणकर्त्री के नाम पर आधारित है । कथा कुछ इस प्रकार है कि श्रीकृष्ण के मथुरा ''चले जाने पर गोपियाँ श्रीकृष्ण के वियोग में व्याकुल हो उठीं । मथुरा जाते समय गोपियों ने श्रीकृष्ण का अनुगमन भी किया, पर निष्फल होकर वापस आ गयीं। उस समय श्रीकृष्ण के रथ से उड़ती हुई धूलि को देख उन गोपियों ने उसी धूलि को ही अपना दूत बनाकर श्रीकृष्ण के पास भेजकर अपना सन्देश भेजा । यथा—
गते
गता
गोपीनाथे मधुपुरमिती गोपभवनाद यावद्दूली रथचरणजा नेत्रपदवीम् । स्थितास्तावल्लेख्या इव विरहतो दुःखविधुरा निवृत्ता निष्पेतुः पथिषु शतशो गोपवनिताः ॥
काव्य अप्रकाशित है और इसके कुछ अंश हो उपलब्ध हैं ।
घटस्वर्परकाव्यम्' : संस्कृत के दूतकाव्यों में इस काव्य का स्थान सर्वप्रथम है। यह दूतकाव्य मेघ-सन्देश से भी पहले का लिखा हुआ है । कथावस्तु भी करीब-करीब मेघदूत के ही समान है । मात्र अन्तर इतना ही है कि इसमें पत्नी ने पति के पास मेघ को दूत बनाकर भेजा है, जबकि मेघदूत में पति ने पत्नी के पास मेघ को दूत के रूप में भेजा है । यद्यपि नाम एवं स्वरूप से यह काव्य एक सन्देश- काव्य सदृश नहीं प्रतीत होता, पर वस्तुतः यह काव्य भी एक सन्देशकाव्य ही है । मात्र २२ श्लोक के इस अतिलघुकाय काव्य में विभिन्न सुमधुर - कर्णप्रिय छन्दों को प्रयुक्त कर कवि ने इस काव्य को एक सफल सन्देशकाव्य का स्वरूप प्रदान कर दिया है । महाकाव्यों तथा मेघदूतकाव्य के मध्य में -- भाव पक्ष एवं कला -पक्ष इन दोनों दृष्टियों से- यह काव्य एक अन्तरिम श्रृंखला का कार्य करता है । इस प्रकार संस्कृत के सन्देशकाव्यों के विकास के इतिहास में इस घटखर्पर काव्य के महत्व को अस्वीकृत नहीं किया जा सकता है ।
घनवृत्तम्' : इस दूतकाव्य के रचनाकार कोरद रामचन्द्र जी हैं । कथा-प्रसंग भी मेघदूत से ग्रहण किया गया है। काव्य में मेघदूत के उत्तर
१. प्रकाशित ।
२. श्री के ० डी० नागेश्वर द्वारा मसूलीपध्म् से सन् १९०८ में प्रकाशित; श्री एम० अच्युत रामशास्त्री द्वारा एलोर से सन् १९१७ में प्रकाशित ।
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