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३४ : जैनमेघदूतम्
पर लिखित सुरक्षित है । काव्य में १४९ श्लोक हैं । श्रीराम सीता के विरह में एक दिन मलय पर्वत पर विचर रहे थे, तभी वे आकाश में मेघ अर्थात् अब्द को देखकर अति विरहातुर हो जाते हैं और उसे ही अपना दूत बनाकर उसके द्वारा सीता के पास अपना विरह-सन्देश भेजते हैं । काव्य अतिसुन्दर है ।
अमर सन्देश' : इस दूतकाव्य के कर्ता के सम्बन्ध में किंचिन्मात्र भी जानकारी नहीं मिलती है । इस काव्य का सूचीपत्र में मात्र उल्लेख ही प्राप्त होता है ।
उद्धवदूतम्' : श्री माधवकवीन्द्र भट्टाचार्य ने अपनी विद्वता एवं कलानिपुणता का परिचय देते हुए, इस दूतकाव्य की रचना की है । इस दूतकाव्य का कथा - संकेत इस श्लोक से ही प्रदर्शित हो रहा है
गच्छोद्धव व्रजं सौम्य पित्रोर्नः प्रीतिमवाह । गोपीनां मद्वियोगाधि मतसन्देशेविमोचय ॥
श्रीमद्भागवत की कथा को लेकर काव्य की कथावस्तु रची गयी है । इस दूतकाव्य में श्रीकृष्ण ने उद्धव को अपना दूत बनाकर उन्हें अपने माता-पिता तथा गोपिकाओं को सान्त्वना देने हेतु वृन्दावन भेजा है ।
उद्धव मथुरा से श्रीकृष्ण का सन्देश वृन्दावन पहुँचाते हैं और फिर वृन्दावन से एक गोपी का सन्देश लेकर श्रीकृष्ण तक पहुँचाते हैं । इस दूतकाव्य में कुल मिलाकर १४१ श्लोक हैं । कालिदास की ही भाँति इस दूतकाव्य में भी कवि ने मार्गवर्णन किया है तथा श्रीमद्भागवत के श्लोकों को अपना आधार बनाया है । संक्षेपतः कहा जा सकता है कि काव्य का कथानक श्रीमद्भागवत के अनुसार ही है । अलंकारों का भी काव्य में पर्याप्त मात्रा में प्रयोग मिलता है ।
उद्धवसन्देश' : इस दूतकाव्य के रचनाकार श्री रूपगोस्वामीजी हैं । यह दूतकाव्य १६ वीं शताब्दी की रचना है । कुल मिलाकर इस काव्य में १. श्री गुस्तोव आपर्ट द्वारा संकलित दक्षिण भारत के निजी पुस्तकालय के संस्कृत हस्तलिखित ग्रन्थों की सूची के भाग २, संख्या ७८०५ द्रष्टव्य । २. श्री जीवानन्द विद्यासागर द्वारा उनके काव्यसंग्रह के प्रथम भाग के तृतीय संस्करण में सन् १८८८ में कलकत्ता से प्रकाशित, डा० जोन हेबलिन द्वारा उनके काव्यसंग्रह में सं० १८४७ में कलकत्ता से प्रकाशित ।
३. श्री जीवानन्द विद्यासागर द्वारा उनके काव्यसंग्रह में तृतीय भाग के तृतीय संस्करण में सन् १८८८ ने कलकत्ता से प्रकाशित ।
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