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________________ १२ : जेनमेघदूतम् चन्द्र नाहटा ने अपने एक लेख में किया है । यद्यपि उन्होंने भी इसके अस्तित्व में सन्देह व्यक्त किया है । फिर भी विद्वद्वत्नमाला के उल्लेखानुसार इस काव्य को भी जैन-संस्कृत दूतकाव्यों में सम्मिलित किया गया है । इस प्रकार जैन कवियों की दूतकाव्य निर्माण में अत्यधिक रुचि परिलक्षित होती है । इसी रुचि का ही यह प्रतिफल है कि संस्कृत-साहित्य के समस्त दूतकाव्यों में इन जैन कवियों द्वारा प्रणीत दूतकाव्यों का पर्याप्त महत्त्व है । विशेष महत्त्व की बात तो यह है कि इन जैन कवियों ने विप्रलम्भ-शृङ्गार रस से ओत-प्रोत रसधारा को शान्त रस में परिवर्तित कर दिया तथा अपनी दूतकाव्य रचनाओं द्वारा जैन धर्म सम्बन्धी धार्मिक, सामाजिक नियमों एवं तात्त्विक सिद्धान्तों का जनसाधारण को उपदेश दिया। इन जैन कवियों ने विज्ञप्ति-पत्रों को भी दूतकाव्यात्मक शैली में प्रस्तुत कर सर्वथा एक नवीन ही प्रयोग कर दिखाया है । दूतकाव्य विधा में इन कवियों द्वारा किये गये उपर्युक्त कुछ नवीन संस्कार इस बात के स्पष्ट परिचाक हैं कि जैन कवियों को दूतकाव्य अत्यन्त प्रिय थे । यही एक कारण था कि लोक - मानस को भलीभाँति पहचानने वाले इन जैन कवियों ने, अपने धर्म के नीरस से नीरसतम धर्म - सिद्धान्तों एवं नियमों का प्रचारप्रसार जन-मानस तक पहुँचाने के लिए इस दूतकाव्य-विधा का आश्रय लिया । साथ ही ये जैन कवि इस कारण प्रशंसा के पात्र और भी बन गये जो कि इन कवियों ने दूतकाव्य के मौलिक साहित्यिक सौन्दर्य एवं सरसता में किञ्चिन्मात्र अल्पता भी नहीं आने दी है । 1 अतः यह स्पष्टतया कहा जा सकता है कि जैन कवियों ने 'दूतकाव्यनिर्माण, उसके क्षेत्र तथा उसकी वस्तुकथा को विकसित करने में अपना अपूर्व योगदान अर्पित किया है । १. जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग ३, किरण २, पृ० ६९ । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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