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भूमिका : ३१ मुझे चित्रशाला भी वन के समान प्रतीत होती है । संसार के समस्त सुख अनित्य और क्षण-भंगुर हैं । ज्ञान और चरित्र ही आत्मा के शोधन में सहायक है।" इस प्रकार स्थूलभद्र की बातें सुनकर कोशा का मन पवित्र हो जाता है, उसकी सारी वासनाएँ जल जाती हैं और वह स्थूलभद्र के चरणों में गिर पड़ती है । वह भी साधनामार्ग में संलग्न हो जाती है और इसप्रकार स्थूलभद्र सूरीश बन जाते हैं। .काव्य में कुल १३१ श्लोक हैं । काव्य का नायक स्थूलभद्र अपनी प्रेयसी कोशा को अपने शील के प्रभाव से प्रभावित कर जैनधर्म में दीक्षित करता है। इसी आधार पर इस दूतकाव्य का नाम शीलदूत रखा गया है। किसी अन्य को दूत के रूप में नहीं भेजा गया है। काव्य में विप्रलम्भ शृङ्गार की प्रधानता रहने पर भी शान्तरस ही स्पष्ट रूप से प्रतिभासित होता है। कवि ने विरहिणो कोशा की उत्सुकता, स्मृति और उत्कण्ठा का सजीव चित्रण किया है । विरहानुभूति की तीव्रता सम्यक् प्रकार से प्रदर्शित की गयी है। समस्यापूर्ति होने पर भी मौलिक कल्पना के यथास्थान दर्शन होते हैं। ___ मेघदूत में कालिदास ने बताया है कि अलका में पहनने के लिए रंगबिरंगे वस्त्र, नयनों को विविध-विलास सिखलाने वाली मदिरा, शरीर सजाने के लिए कोपलों सहित खिले हुए फूलों के नाना प्रकार के गहने, कमल की तरह पैरों को रंगने के लिए महावर आदि समस्त प्रकार की स्त्रीपयोगी शृङ्गार सामग्री अकेला कल्पवृक्ष ही प्रस्तुत करता है। कवि श्री चारित्रसुन्दरगणि ने कल्पवृक्ष की इसी कल्पना को त्याग के रूप में निम्न प्रकार से अंकित किया है
त्यागो यस्यां धनिभिरनिशं दोयमानोऽधनां द्रा
गेकं सूते सकलमबलामण्डनं कल्पवृक्षः ॥८०॥ काव्य को आद्योपान्त पढ़ने से ज्ञात होता है कि कवि का भाषा पर पूर्ण अधिकार है । कवि का यह कथन
चक्रे काव्यं सुललितमहो शीलदूताभिधानम् ॥ अक्षरशः सत्य है । शील जैसे मनः भाव को दूत का रूप देकर कवि ने अपनी मौलिक प्रतिभा का परिचय दिया है।
हंसपादांकबूतम्' : इस दूतकाव्य का उल्लेख जैन विद्वान् श्री अगर१. विद्वद्रलमाला : प्रेमी नाथूराम, पृ० ४६ ।
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