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भूमिका : २९
मेघदूत समस्यालेख' : मुगल सम्राट् अकबर से जगद्गुरु को उपाधि प्राप्त जैनमुनि श्री मेघ विजय जी इस दूतकाव्य के रचनाकार हैं । इस काव्य के अतिरिक्त कुछ अन्य काव्य भी इनके द्वारा रचे गये हैं । इस काव्य की रचना वि० सं० १७२७ में की गई है । यद्यपि काव्य में कहीं भी कवि का नाम तथा रचनाकाल नहीं उल्लिखित है, फिर भी काव्य के अन्तिम श्लोक से कवि के सम्बन्ध में कुछ ज्ञान प्राप्त होता है
माघकाव्यं देवगुरोर्मेघदूतं प्रभप्रभोः
समस्यार्थ समस्यार्थं निर्ममे मेघपण्डितः ॥ १३१ ॥
यह १३१ श्लोक का सम्पूर्ण काव्य है । कालिदासीय मेघदूत की समस्यापूर्ति ही इस काव्य में भी की गई है । कवि ने काव्य में अपने गुरु आचार्य विजयप्रभसूरि के पास मेघ द्वारा अपनी कुशलवार्ता का सन्देश भेजा है। काव्य में गुरु के प्रताप का वर्णन किया गया है तथा गुरु के वियोग में कवि की व्याकुलता एवं असहायावस्था का मर्मस्पर्शी चित्रण किया गया है ।
काव्य का अन्तिम श्लोक अनुष्टुप् छन्द में निबद्ध है | काव्य का मुख्य रस भक्ति है । जैसा कि काव्य की कथा से स्पष्ट है कि कवि ने अपने गुरु के लिए विज्ञप्ति स्वरूप यह दूतकाव्य लिखा है । अतः गुरुभक्ति एवं जैनधर्म का यत्र-तत्र स्पष्ट प्रभाव काव्य में दिखलायी पड़ता है । कवि की गुरुभक्ति श्लाघनीय है । अपने पूजनीय गुरु के वियोग में अपनी अवस्था का वर्णन करते हुए कवि कहता है :
नित्यं चेतः स्फुरति चरणाम्भोजयोः सूरिराजः • कायः सर्वैः समयविषयैः संनिबद्धान्तरायः । नो चेदो हग्गुरु सुरतरु प्राप्य कः स्याद्द्वीयान् न स्यादन्योऽप्यहमिव जनो यः पराधीनवृत्तिः ॥८॥
काव्य में जैन धर्म से सम्बन्धित कोई विशेष विवरण तो मिलता नहीं है, लेकिन स्थान-स्थान पर जैन प्रतिमाओं और तीर्थंकरों का श्रद्धा के साथ उल्लेख किया गया है । इससे स्पष्ट होता है कि यह काव्य एक जैन कवि द्वारा रचित जैन धर्म-विषयक रचना ही है । दूतकाव्यों तथा
१. श्री जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर ( राजस्थान) से वि० सं० १९७० 1. में प्रकाशित ।
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