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२८ : जैनमेघदूतम्
का अवश्य ही निर्देश मिलता है । कवि की विशेषता यही है कि उसने कालिदास के मूल भावों को अति सुन्दरता से पल्लवित किया है । काव्य की सबसे बड़ी विशिष्टता यह है कि कवि ने समस्त मेघदूत को इसमें समाविष्ट कर दिया है । इसमें कुछ भी सन्देह नहीं कि समस्यापूर्ति की दृष्टि से यह काव्य अद्वितीय है ।
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मनोतम्' : इस काव्य के कर्ता के विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं है । जैन ग्रंथावली में इसके विषय में मात्र इतनी जानकारी है कि इसमें ३०० श्लोक हैं तथा इसकी मूलप्रति पाटण के भण्डार में उपलब्ध है ।
मयूरवृतम् : १९ वीं शती के जैन कवि मुनि धुरन्धरविजय ने इस काव्य की रचना की है । काव्य में कुल १८० श्लोक हैं, जिनमें से अधिकांश श्लोक शिखरिणी वृत्त में रचे गये हैं । कवि का, वृत्त के सम्बन्ध मैं यह एक सर्वथा नवीन हो प्रयोग है। यह काव्य भी इन्दुदूत काव्य के समान ही गुरुभक्ति पर आधारित है । इसमें भी शिष्य द्वारा गुरु के पास वन्दना एवं क्षमापना सन्देश ही भेजा गया है ।
काव्य की संक्षिप्त कथा इस प्रकार है कि मुनि विजयामृतसूरि जो कि आचार्य विजयने मिसूरि का शिष्य है, वह अपने चातुर्मास काल को कपडवणज में बिताता है। उसके गुरु विजयने मिसूरि जामनगर में अवस्थित होकर अपना चातुर्मास बिताते हैं । चातुर्मास काल में गुरु का सामीप्य न प्राप्त कर तथा गुरु के प्रति अतीव श्रद्धा होने के कारण वह अपने आदरणीय गुरु के पास वन्दना एवम् क्षमापना का सन्देश एक मयूर के द्वारा सम्प्रेषित करता है ।
स्वतन्त्र काव्य के रूप में यह दूतकाव्य रचा गया है। इसमें कालिदासीय मेघदूत से किसी भी प्रकार की सहायता ली गयी परिलक्षित नहीं मिलती है । परन्तु काव्य में नगर आदि के वर्णन में कालिदासीय मेघदूत जैसा ही तारतम्य मिलता है । काव्य में "श्री सूरीन्द्राः " व "श्री सूरीश्वराः” जैसे ही विशेषणों एवं कुछ श्लोकों में जैनधर्म का उल्लेख होने के कारण कहा जा सकता है कि यह किसी जैन कवि की ही अभिनव कृति है । काव्य में अहिंसा, करुणा आदि भावों पर अधिक जोर दिया गया है ।
१. जिनरत्नकोश, पृ० ३०१ ।
२. जैनग्रन्थावली, पृ० ३३२ ।
३. जैन ग्रन्थ प्रकाशक सभा, अहमदाबाद से वि० सं० २००० में प्रकाशित,
ग्रन्थांक ५४ ।
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