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भूमिका : २७ समस्या-पूर्ति के रूप में गुम्फित रहने से मूल पंक्तियों के भाव में यत्र-तत्र विपर्यस्तता आ जाने के कारण काव्य कुछ दुरूह भी अवश्य है ।
जैन दूतकाव्य-परम्परा का यह प्रथम दूतकाव्य है। इस काव्य में तीर्थकर पाश्र्वनाथ के अनेक जन्म जन्मान्तरों का समावेश हआ है। कथावस्तु संक्षेप में इस प्रकार है कि पोदनपुर के नृपति अरविन्द द्वारा बहिष्कृत कमठ सिन्धु तट पर तपस्या कर रहा था। उसी समय भ्रातृप्रेम के कारण कमठ का अनुज मरुभूति उसके पास गया। किन्तु क्रोधावेश में आकर कमठ ने उसे मार डाला। अनेक जन्मों में यही क्रम चलता रहा। अन्तिम जन्म में कमठ शम्बर और मरुभूति पार्श्वनाथ बनता है। पार्श्वनाथ को साधना से विचलित करने के लिए शम्बर अनेक उपसर्ग करता है, पर पार्श्वनाथ विचलित नहीं होते हैं। धरणेन्द्र देव और पद्मावती देवी आकर पार्श्वनाथ के उपसर्ग को दूर कर देती हैं । अन्त में पार्श्वनाथ केवल-ज्ञान को प्राप्त करते हैं और इस प्रकार इस घटना को देखकर शम्बर भी पश्चात्ताप करता हुआ पार्श्वनाथ से क्षमायाचना करता है।
जिनसेन ने समग्र कालिदासीय मेघदूत को समस्यापूर्ति द्वारा आवेष्टित कर इस काव्य का प्रणयन किया है। इसके प्रत्येक श्लोक में क्रम से कालिदासीय मेघदूत के श्लोकों के चतुर्थांश या अशि को समस्या के रूप में गुम्फित किया गया है।
कवि जिनसेन ने मेघदूत के उद्धृत अंश के प्रचलित अर्थ को अपने स्वतन्त्र कथानक में प्रसक्त करने में बड़ी विलक्षणता का परिचय दिया है। कवि ने विभिन्न प्राकृतिक दृश्यों तथा भावपूर्ण रम्य स्थानों के चित्रण में पूरी सहृदयता का परिचय दिया है । आम्रकूट पर्वत के शिखर पर मेघ के पहुँचने के समय पर्वत की शोभा का वर्णन करते हुए लिखा है
कृष्णाहिः किं वलयिततनुर्मध्यमस्याधिशेते किंवा नीलोत्पलविरचितं शेखरं भूभृतः स्यात् । इत्याशङ्का जनयति पुरा मुग्धविद्याधरीणं
त्वय्याख्ढ़े शिखरमचलः स्निग्धवेणीसवणे ॥१/७०॥ कवि दृश्य-चित्रण में पटु है। समस्या-पूर्ति करने पर भी कवि ने नवीन भावों की योजना की है। वर्णनों को अनावश्यक भरमार होने से कहीं-कहीं काव्य में शिथिलता भी आ गयी है।
प्रस्तुत काव्य में कहीं भी जैनधर्म का कोई भी सिद्धान्त प्रतिपादित नहीं मिलता है। पर कैलाश पर्वत एवं महाकाल वन में अर्हत्-प्रतिमाओं
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