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२६ : जैनमेघदूतम्
उज्जयिनी के राजा विजयनरेश की रानी तारा को अशनिवेग नामक एक विद्याधर चुरा ले गया । अपनी प्रिय रानी के वियोग में विजयनरेश अति दुःखित हो उठा अपनी विरहावस्था में वह पवन को दूत बनाकर रानी तारा के पास भेजता है । काव्य में यही कथा वर्णित है ।
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समस्यापूर्ति रूप न होते हुए भी काव्य मेघदूत के अनुकरण पर ही रचा गया है । कथा काल्पनिक है । काव्य में कुल १०५ श्लोक हैं । छन्द मन्दाक्रान्ताही प्रयुक्त है । भाषा सरस एवं प्रसादगुण युक्त है । वैसे तो पवनदूत एक विरह दूतकाव्य ही है फिर भी काव्य में मनोरञ्जन के अतिरिक्त शिक्षा सम्बन्धी बहुत सारी सामग्री विद्यमान है । कवि का धार्मिक, सामाजिक एवं नैतिक दृष्टिकोण बहुत ही ऊँचा है । इस प्रकार एक जैन विद्वान् की रचना होने के कारण श्रृङ्गार के साथ-साथ इस काव्य में परोपकार, दया, अहिंसा और दान आदि सद्भावों की प्रशंसा भी मिलती है । कवि को इस दूतकाव्य की रचना में पर्याप्त सफलता मिली है ।
पाश्र्वाभ्युदय' : इस जैन दूतकाव्य के रचनाकार आचार्य जिनसेन हैं । काव्य के अन्त में आये हुए एक पद्य से इतना स्पष्ट होता है कि ये वीरसेनाचार्य के शिष्य थे । उन्हीं के कहने पर इस काव्य की इन्होंने रचना की है । जिनसेन का स्थिति-काल विक्रम की ९ वीं शती (सन् ७५८-८३७ ई०) स्वीकार किया जाता है । स्व० पं० नाथूराम प्रेमी ने भी इनके स्थिति-काल के सम्बन्ध में यहो निर्धारित किया है । कालिदासीय मेघदूत के पदों को लेकर इस काव्य की रचना की गयी है । काव्य में चार सर्ग हैं - प्रथम सर्ग में ११८, द्वितीय सर्ग में ११८, तृतीय सर्ग में ५७ एवं चतुर्थ सर्ग में ७१ श्लोक हैं । काव्य की भाषा अति प्रौढ़ है । इस काव्य में भी मन्दाक्रान्ता छन्द ही प्रयुक्त है । काव्य की शैली कुछ अधिक जटिल है ।
१. श्री के० वी० पाठक द्वारा पूना से तथा श्री योगिराट् की टीका के साथ निर्णयसागर प्रेस, बम्बई से सन् १९०९ में प्रकाशित ।
२. श्री वीरसेनमुनिपाद पयोजभृङ्गः श्रीमानमद्विनयसेनमुनिर्गरीयान् । तच्चोदितेन जिनसेन मुनीश्वरेण काव्यं व्यधयि परिवेष्टितमेघदूतम् ॥ - पाश्वभ्युदय काव्य, ४१७१ । ३. भारतीय इतिहास : एक दृष्टि : डा० ज्योतिप्रसाद जैन, पृ० ३०१ । ४. विद्वद्वत्नमाला प्रेमी नाथूराम, पृ० १०८९ ।
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