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भूमिका : २५ तो अवश्य है, पर कवि दूत का कोई भी कार्य उससे लेता नहीं है । कवि ने नायिका के शील एवं लज्जा का अतिसुन्दर ढंग से चित्रण किया है। ___ काव्य में विप्रलम्भ शृङ्गार एवं शान्त रस का अपूर्व सङ्गम मिलता है। काव्य का शुभारम्भ तो विरह से होता है, पर समाप्ति शान्त रस में होती है। नायक-नायिका का सम्मिलन शारीरिक भोगों के लिए नहीं अपितु मोक्ष-सौख्य की प्राप्ति के लिए होता है। कवि कहता है
चक्रे योगान् निजसहचरों मोक्षसौख्याप्तिहेतोः
केषां न स्यादभिमतफला प्रार्थना ह्यत्तमेषु ॥१२४॥ सम्पूर्ण काव्य में १२६ श्लोक हैं। पूर्व एवं उत्तर भाग जैसा कोई विभाजन इस काव्य में नहीं है । समग्र काव्य राजीमती के विरह तथा विलाप वर्णन से भरा है। प्रारम्भ से अन्त तक विप्रलम्भ शृङ्गार ही मिलता है, लेकिन काव्य के अन्त में शृङ्गार रस एकदम शान्तरस में बदल जाता है । श्री नेमि राजीमती को स्वीकार तो कर लेते हैं, पर सांसारिक सुख-भोग हेतु नहीं, प्रत्युत उसे भी मोक्ष-मार्ग का पथिक बनाने हेतु
चक्रे योगान्निजसहचरी मोक्षसौख्याप्तिहेतोः केषां न स्यादभिमतफला प्रार्थना ह्यत्तमेषु ॥१२४॥ तामानन्दं शिवपुरि परित्याज्य संसार-भाजां
भोगानिष्टानभिमतसुखं भोजयामास शाश्वत् ॥१२५॥ इस तरह शृङ्गार रस का शान्तरस में पर्यवसान कर कवि ने मानवव्यवहार में एक उदात्त आदर्श की प्रतिष्ठा की है। समस्यापूर्ति के रूप में लिखे गये अन्य काव्यों की अपेक्षा यह काव्य कहीं अधिक प्रसाद-गुण-युक्त है और कवि की सहृदयता का परिचायक है।
पवनदूतम् : इस स्वतन्त्र रचना के रचयिता श्री वादिचन्द्रसरि जी हैं। काव्यकार का समय विक्रम को १७ वीं शताब्दी है । ग्रन्थकर्ता ने काव्य के अन्तिम श्लोक में अपना परिचय दिया है कि
पादौ नत्वा जगदुपकृतो वर्धसामर्थ्यवन्तौ विघ्नध्वान्तप्रसरतरणेः शान्तिनाथस्य भक्त्या। श्रोतुं चैतत्सदसि गुणिना वायुदूताभिधानम्
काव्यं चक्र विगतवसनः स्वल्पधीर्वादिचन्द्रः ॥१०॥ १. हिन्दी अनुवादसहित हिन्दी जैन साहित्य प्रसारक कार्यालय, बम्बई से
१९१४ ई० में प्रकाशित ।
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