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________________ २४ : जैनमेघदूतम् __ जैनमेघदतम्' : इस दूतकाव्य के रचनाकार कवि आचार्य मेरुतुङ्ग जी हैं। काव्य १५ वीं शताब्दी का रचा हुआ है। इस काव्य में मेघ को दूत रूप में निश्चित कर राजीमती द्वारा श्री नेमिनाथ के पास अपना विरह-सन्देश सम्प्रेषित किया गया है । काव्य चार सन्धियों में विभक्त है, जिनमें क्रमशः ५०, ४९, ५५, ४२ श्लोक हैं। विचार-तारतम्य और रस की दृष्टि से काव्य बड़ी उच्चकोटि का है। जैन-संस्कृत साहित्य में यह रचना एक विशिष्ट स्थान रखती है। इस काव्य के बारे में विशेष विशद् चर्चा पीछे की जायेगी। . नेमिदतम२ : कवि श्री विक्रम द्वारा मेघदूत के चतुर्थ चरण की समस्यापूर्ति के रूप में इस काव्य की रचना हुई है। काव्य में तीर्थंकर नेमिनाथ का चरित्र वर्णित है । काव्य के निम्नलिखित श्लोक-- सद्भतार्थप्रवरकविना कालिदासेन काव्यादन्त्यं पादं सुपदरचितान्मेघदूताद् गृहीत्वा । श्रीमन्नेमिश्चरितविशदं सांगणस्यांगजन्मा चक्रे काव्यं बुधजनमनः प्रीतये विक्रमाख्यः ॥२६॥ में कवि ने अपने को 'सांगणस्यांगजन्मा' बतलाया है । विक्रम कवि खम्भात के रहने वाले १३ वीं शती के श्वेताम्बर एवं खरतरगच्छीय श्री जिनेश्वर सूरि के श्रावक भक्त थे। ' नेमिकुमार के विरक्त होकर तपश्चरण के लिए जाने पर विरहविधुरा राजीमतो एक वृद्ध ब्राह्मण को उनका कुशल समाचार लेने हेतु श्री नेमि की तपोभूमि में भेजती है। पश्चात् पिता की आज्ञा लेकर स्वयं एक सखी के साथ वहाँ पहुँच कर अनुनय-विनय करती हुई अपने विरह-दग्ध हृदय की भावनाओं को प्रलापरूप में व्यक्त करने लगी। पति के त्याग तपश्चरण का उस पर इतना अधिक प्रभाव पड़ा कि वह भी तपस्विनी बनकर उनके साथ ही तप करने लगी। - काव्य में केवल नायिका की विरहावस्था का चित्रण पाया जाता है और वह संसार-विरक्त अपने नायक को अपनी ओर अनुरक्त करने का निष्फल प्रयास करती है। काव्य में एक वृद्ध ब्राह्मण दूत के रूप में आता १. शीलरत्नसूरिविरचित वृत्ति सहित, जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर से १९२४ ई० में प्रकाशित । २. जैन प्रेस, कोटा से प्रकाशित । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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