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भूमिका : २३ चन्द्रदूतम्' : खरतरगच्छीय कवि मुनि विमलकीति ने इस काव्य की रचना की है । मेघदूत के अन्तिम चरण की समस्यापूर्ति स्वरूप इस काव्य की रचना हुई है, फिर भी यत्र-तत्र अपने भावों को और भी अधिक स्पष्ट करने हेतु कवि ने अधिक पद्य रचकर स्वतन्त्रता से भी काम लिया है।
संक्षेप में इसका वर्ण्यविषय यही है कि कवि ने स्वयं चन्द्र को सम्बोधित कर शत्रुञ्जय तीर्थ में स्थित आदिजिन ऋषभदेव को अपनी वन्दना निवेदित करने के लिए भेजा है।
पूर्ण काव्यावलोकन कर लेने पर भी यह स्पष्ट नहीं हो पाता है कि कवि ने किस स्थल पर चन्द्र को नमस्कार कर उसे दूत के रूप में ग्रहण किया है। मन्दाक्रान्ता वृत्त में ही निबद्ध यह काव्य बड़ा ही भावपूर्ण एवं कवि की विद्वता का परिचायक है। अनेकार्थ काव्य की दृष्टि से भी इस दूतकाव्य का महत्त्व है । वि० सं० १६८१ में रचा गया यह काव्य अवश्य ही जैन दूतकाव्य की श्रेणी में विशिष्ट स्थान रखता है।
चन्द्रदूतम् : जिनरत्नकोश में इस काव्य का मात्र नामोल्लेख हुआ है। जिसके आधार पर यह काव्य विनयप्रभ द्वारा प्रणीत प्रतीत होता है।
चेतोदूतम् : मेघदूत के अन्तिम चरणों को लेकर समस्यापूर्ति स्वरूप इस काव्य की रचना की गई है। कवि के सम्बन्ध में भी कोई जानकारी नहीं उपलब्ध होती है। कथा भी कोई विशेष नहीं है। एक शिष्य अपने गुरु के श्री चरणों की कृपादृष्टि को अपनी प्रेयसी के रूप में मानकर उसके पास अपने चित्त को दूत बनाकर भेजता है। मेघदूत की समस्यापूर्ति के कारण काव्य में मन्दाक्रान्ता छन्द भी प्रयुक्त है। काव्य में कुल १२९ श्लोक हैं । काव्य का विषय शृाङ्गारिक न होकर धार्मिक है। ___काव्य का दृष्टिकोण धार्मिक एवं ज्ञानपरक होने पर भी यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि यह काव्य जैन-धर्म से ही संबद्ध है। शिष्य ने गुरु के लिए "श्री सूरीन्द्राः", "श्री सूरीश्वराः" जैसे विशेषणों. का प्रयोग किया है तथा जैनधर्म का उल्लेख किया है। अतः यह कहा जा सकता है कि यह किसी जैन कवि की ही अभिनव रचना है । मेघदूत के शृङ्गार रस-पूर्ण वातावरण से प्रेरणा लेकर कवि ने अपनी अद्वितीय प्रतिभा से शान्तरस के एक सुन्दर सन्देश-काव्य की सृष्टि कर दी है। १. श्री जिनदत्त सूरि ज्ञान भण्डार, सूरत से वि० सं० २००९ में प्रकाशित । २. जिनरत्नकोश, पृ० ४६४ ।। ३. जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर से वि० सं० १९७० में प्रकाशित ।
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