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जैन दूतकाव्य संस्कृत साहित्य में दूतकाव्यों की स्थिति को सुस्थिरता प्रदान करने में जैन कवियों का पर्याप्त योगदान रहा है । अद्यावधि अनेक जैन कवियों द्वारा दूतकाव्यों की रचनाएँ हुई हैं। यहाँ पर उन समस्त जैन कवियों द्वारा रचित दूतकाव्यों का वर्णक्रमानुसार संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया जा रहा है। इनमें से कुछ दूतकाव्यों का तो अन्य ग्रन्थों में मात्र उल्लेख ही मिलता है और शेष सभी दूतकाव्य प्रायः प्रकाशित हो चुके हैं
इन्दुदूतम्' : इस दूतकाव्य के रचनाकार श्री विनयविजयगणि जी हैं । काव्य का रचनाकाल लगभग १८ वीं शती का पूर्वार्द्ध है। काव्य में १३१ श्लोक हैं । काव्य मेघदूत के अनुकरण पर मन्दाक्रान्ता छन्द में रचा गया है । परन्तु इस काव्य का विषय मेघदूत से एकदम भिन्न है। यह काव्य शुद्ध शान्त-रस प्रधान है।
विजयप्रभसूरि सूरत में चातुर्मास करते हैं और उनके शिष्य विजयगणि जोधपुर में। चातुर्मास के अन्त में पूर्णिमा की रात्रि में चन्द्रमा को देखकर उनका विचार होता है कि उसके द्वारा अपने गुरु के पास वे अपना सांवत्सरिक क्षमापण सन्देश और अभिनन्दन भेजें। चन्द्रमा को दूत-कार्य में नियुक्त करने से पूर्व वे उसका स्वागत करते हैं और तब उससे अपना सन्देश भेजते हैं।
काव्य की भाषा में सर्वत्र प्रवाह एवं प्रसाद गुण मिलता है। सन्देशकाव्य-परम्परा में इस काव्य का अपना पृथक् स्थान है। काव्य-विषय भी सर्वथा नवीन है।
इन्दुबूतम् : जैन कवि जम्बू द्वारा प्रणीत इस काव्य का मात्र जिनरत्नकोश' में उल्लेख ही मिलता है। इसके अतिरिक्त इस काव्य के सम्बन्ध में कोई भी जानकारी नहीं प्राप्त होती है। जैन ग्रन्थावली में जम्बूकवि द्वारा प्रणीत इस काव्य का नाम "चन्द्रदूत" दिया गया है। उसमें मालिनी वृत्त में रचित २३ श्लोक हैं।
१. श्री जैन साहित्यवर्धक सभा, शिरपुर से सं० १९४६ में प्रकाशित । २. जिनरत्नकोश, पृ० ४६४ । ३. जैनग्रन्थावली, पृ. ३२९ ।
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