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भूमिका : २१ एवं शैवदर्शन के सिद्धान्त, इस दूतकाव्य में प्रतिपादित मिलते हैं। अतः यह दूतकाव्य पूर्णतया दार्शनिक है, इसमें कोई विसंगति नहीं।
इसके अतिरिक्त अन्य अनेक दूतकाव्यों में यत्र-तत्र दार्शनिकता की झलक स्पष्ट मिलती है। अपने विवेच्य ग्रन्थ आचार्य मेरुतुङ्गकृत जैनमेघदूत के ही एक-दो दार्शनिक स्थल देख सकते हैं। जिस प्रकार प्रकृति आत्मा को बाँध लेती है ठीक वैसे ही एक हरिप्रिया (श्रीकृष्ण की पत्नी) श्रीनेमि के कटि-प्रदेश में रक्त-कमल की माला किस प्रकार बाँध रहो है, इसका वर्णन कवि इस प्रकार करता है
व्यक्तं रक्तोत्पलविरचितेनैव दाम्ना कटोरे
काञ्चीव्याजात्प्रकृतिरिव तं चेतनेशं बबन्ध ॥' अन्यत्र कवि ने स्पष्ट किया है कि यदुपति (श्रीकृष्ण) की स्त्रियों ने मदों के मूलकारण श्रीनेमि को उसी प्रकार घेर लिया, जेसे कर्मापेक्षा वाली मोहसेना आत्मा को घेर लेती है
दृक्कोणेन त्रिभुवनमपि क्षोभयन्त्यः परीयुः
कर्मापेक्षाः परमपुरुषं मोहसेनाः प्रभुं तम् ॥२ . इस प्रकार हम देखते हैं कि यह दूतकाव्य-परम्परा शनैः-शनैः विविध रूपों में विकसित होती हई तथा निरन्तर अभिवृद्धि की ओर अग्रसर होती हुई, अद्यावधि वर्तमान है । शृङ्गार-प्रधान और अध्यात्म-प्रधान यह वर्गीकरण अद्यावधि दूतकाव्य-परम्परा के विस्तृत आकार व बहु-आयामों को देखकर ही किया गया है। इस परम्परा में आज भी नवीन काव्यरचनाएं हो रही हैं।
१. जैनमेघदूतम्, २।२१ ( उत्तरार्द्ध)। २. वही, २।४३ ( उत्तरार्द्ध)।
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