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२० : जेनमेघदूतम्
गये अपने अपराधों के लिए पश्चात्तापपूर्वक क्षमायाचना करता है, सम्यक् ज्ञान की भिक्षा माँगता है । इसीप्रकार अन्य भी अनेक तापसगण भक्तिभावना सहित पार्श्वनाथ की शरण में आते हैं । भगवान् पार्श्वनाथ एवं जैन धर्म की महिमा बतलाकर काव्य को कवि ने पूर्णतया धार्मिक बना दिया है । जैन साहित्य में इसका अपना विशिष्ट स्थान है ।
उत्तरकालीन जैन-कवियों ने भी अपने-अपने दूतकाव्यों में, धार्मिकता के आधार पर ही श्रीनेमि व पार्श्वनाथ का चरित वर्णन किया है । विक्रम कवि का नेमिदूत भी श्रीनेमि के जीवन चरित को ही लेकर रचा गया है । इसीप्रकार आचार्य मेरुतुङ्ग ने जैनमेघदूत, चारित्रसुन्दरगणि ने शीलव्रत आदि दूतकाव्यों की रचना की । त्याग - प्रधान जीवन में पूर्ण आस्था रखने वाले ये जैन कवि, जैन धर्म के अति नीरस से नीरस धर्म सिद्धान्तों एवं नियमों का प्रतिपादन अपने दूतकाव्यों में कर गये हैं । यह इन कवियों का सर्वथा एक नवीन प्रयोग ही है । इन जैन कवियों के दूतकाव्यों में साहित्यिक एवं वाङ्गारिक सौन्दर्य के साथ ही साथ, जैन धर्मं विषयक धार्मिक एवं आध्यात्मिक सिद्धान्त भी प्रतिपादित मिलते हैं ।
इन जैन कवियों ने दूतकाव्य के रूप में ही, उसी विधि में अपने-अपने गुरुओं के प्रति विज्ञप्ति-पत्र भी रचे हैं । ये विज्ञप्ति - पत्र पूर्णतया दूतकाव्यात्मक शैली में ही हैं । इन विज्ञप्ति - पत्रों में इन जैन कवियों ने अपनी धार्मिक प्रगति का वर्णन किया है। जो अपने-अपने गुरुओं के प्रति इन कवियों ने रचे थे ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि इन जैन कवियों ने अपने दूतकाव्यों में, जहाँ एक तरफ सदाचार व संयम का आदर्श उपस्थित किया है, वहाँ दूसरी तरफ अपने जैन धर्म के मूल तात्त्विक धर्म- सिद्धान्तों को भी समझाने का प्रयत्न किया है । इनका परमार्थ - तत्त्व निरूपण सराहनीय है ।
(ख) दार्शनिक : दार्शनिक दूतकाव्य के अन्तर्गत एक अज्ञात नाम कवि द्वारा रचित हंससन्देश नामक दूतकाव्य विशेष उल्लेखनीय है । इस दूतकाव्य में माया के बन्धन में फँसकर तथा कर्मों के मोह में फँसकर भगवान् शंकर की भक्ति से च्युत किसी एक दोन, असहाय, अस्थिर चित्तवाले पुरुष द्वारा अपने मन रूपी हंस को दूत बनाकर शिवलोक में शिवभक्ति के पास भेजा जाता है। इसमें कवि ने उस पुरुष के मन को नायक एवं शिवभक्ति को नायिका के रूप में चित्रित किया है। वेदान्त, योग
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