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भूमिका : १९ इस प्रकार शृङ्गारिक दूतकाव्यों की बहुत लम्बी परम्परा मिलती है । साहित्यशास्त्र में विरह की जितनी भी काम-दशाएँ कही गयी हैं, उन सबका इन दूतकाव्यों में बड़ा क्रमिक एवं मनोवैज्ञानिक वर्णन प्राप्त होता है।
अध्यात्म-प्रधानः-शृङ्गारिकता की रस-धारा में अनेक डुबकियां लगाने पर भी जब व्यक्ति अपने को पूर्णतया आत्म-सन्तुष्ट न बना सका, तो वह उस शृाङ्गारिक धारा का विसर्जन कर आत्म-तोष हेतु अध्यात्मशोध के प्रति आकृष्ट हुआ। इसप्रकार मन को आध्यात्मिक-पिपासा से तप्त करने के हेतु, कवियों ने अध्यात्म का आश्रय लेकर काव्य-रचना प्रारम्भ की । इस हेतु कवियों ने अधिकांशतः महाभारत, भागवत एवं रामायण से कथाएँ उद्धृत की। साथ ही इन्हीं ग्रन्थों के उदात्तचरित नायकों के जोवन-वृत्तों को, अपने दूतकाव्यों का आधार निश्चित किया । महाभारत, भागवत एवं वाल्मीकीय रामायण आदि के ये नायक, उस समय समाज के आराध्य देव के रूप प्रतिष्ठित थे। अतः कवियों ने उनको भगवान् के रूप में चित्रित कर, उनकी भक्ति रूप में उनके आदर्श चरित्र को अपने काव्यों में अंकित किया । इसलिए इन काव्यों में आध्यात्मिकता के साथ-साथ धार्मिकता एवं दार्शनिकता भी स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है।
इन आध्यात्मिक दूतकाव्यों का समाज-रचना को सुस्थिर रखने में भी पर्याप्त योगदान है । शृाङ्गारिकता की ओर अग्रसरित समाज को, इन आध्यात्मिक दूतकाव्यों ने अपने अध्यात्म व भक्तिपूरित अम्बु-पान द्वारा आध्यात्मिकता का रसास्वादन कराया। जिससे समाज भोग-विलास के प्रति विरक्त हो अध्यात्म-चिन्तन में लग सका।
(क) धार्मिक : इस परम्परा में धार्मिकता की सीमा बाँधने वाले प्रथम जैन कवि ही हैं। इन्होंने अपने काव्यों को जैन धर्म के परिप्रेक्ष्य में रचा है। इन्होंने भी अन्य कवियों की भाँति जैनधर्म के पार्श्वनाथ एवं नेमिनाथ जैसे महापुरुषों के जीवन चरित्रों को अपने दूतकाव्यों में अंकित किया है। जैन कवियों की दूतकाव्य-परम्परा का सर्वप्रचीन दूतकाव्य आचार्य जिनसेनकृत पार्वाभ्युदय है। मेघदूत की प्रतिपंक्ति को समस्या मानकर इस काव्य की रचना हुई है। सन्देश-कथन जैसा कुछ भी नहीं है । कमठ मरुभूति की धीरता, सहिष्णुता एवं सौजन्यता से अत्यधिक प्रभावित हो, उससे अपना वैरभाव विस्मृत कर उसी की शरण में आता है। उसके प्रति किये
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