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________________ १८: जेनमेघदूतम् ' इस प्रकार सूक्ष्मतया देखने पर आभासित होता है कि यह दूतकाव्य परम्परा, विभिन्न कालों में तत्कालीन सामाजिक वातावरण के आधार पर अपने स्वरूप को ढालने का सफल प्रयास करती रही है। सर्वविध सम्पन्न एवं भोग-विलास-सामग्रियों में लिप्त समाज में अनायास ही श्राङ्गारिक-धारा प्रवहण करेगी और उस शृङ्गार पूर्ण आकण्ठ डूबे वातावरण में जो भी काव्य-रचना होगी, वह स्वभावतः शृाङ्गारिक हो होगी, उसमें शृाङ्गारिकता स्वयं स्पष्ट चमकेगी । परन्तु इस भोग-विलास, काम-वासना में निरन्तर डूबे रहने से ऐन्द्रिक-तृप्ति तो अवश्य मिल जाती है परन्तु आत्मिक-तृप्ति किञ्चित् मात्र भी नहीं मिल पाती है। अतः ऐसे समय में व्यक्ति का मन आत्म-तोष हेतु छटपटाने लगता है। ऐसे समय में वह शृङ्गार की तरफ आकृष्ट न हो अपितु आत्म-चिन्तन, आत्म-दर्शन की खोज में भागता है; क्योंकि उस समय उसे इसी आध्यात्मिक-प्याले से हो अपनी प्यास बझती नजर आती है। ऐसी स्थिति में सारा वातावरण आध्यात्मिक-चिन्तन में निमग्न हो जाता है और तब ऐसे वातावरण में जो काव्यरचना होगी, वह पूर्णतया आध्यात्मिक-तत्त्वों से ही सम्बद्ध होगी। इस विवेचन के आधार पर हम दूतकाव्य-परम्परा को दो वर्गों में विभक्त कर सकते हैं-(१) शृङ्गार-प्रधान और (२) अध्यात्म-प्रधान । शृङ्गार-प्रधान:-शृङ्गारिक दूतकाव्यों में, शृङ्गार के दोनों पक्षों (संयोग एवं विप्रलम्भ) का प्रयोग हुआ है। विप्रलम्भ-पक्ष का इन दूतकाव्यों में ऐसा चित्रण हुआ है कि वह ही काव्य का मुख्य रस बन बैठा है। इसका सबसे सुन्दर उदाहरण महाकवि कालिदास का मेघदूत है। जो संस्कृत दूतकाव्य परम्परा का सर्वप्रमुख दूतकाव्य माना जाता है, मात्र अपनी कलावैशिष्ट्यता एवं सून्दरता के कारण ही नहीं अपितु सर्वप्राचीनता के कारण भी । मेघदूत के प्रथम व अन्तिम दोनों श्लोकों में विरह एवं विप्रयोग शब्द दृष्टिगोचर होते हैं तथा सम्पूर्ण काव्य विरह-भाव को ही अभिव्यक्त करता है। मार्गवर्णन के प्रसंग में क्या नदियाँ, क्या पथिक-वनिताएँ, क्या पर्वत-चोटियाँ सभी विरहिणी सी चित्रित मिलती हैं । संयोग-पक्ष के शृङ्गार का भी पर्याप्त दिग्दर्शन होता है । अतः मेघदूत पूर्ण शृङ्गारिक दूतकाव्य है। यह निस्संकोच कहा जा सकता है। आगे चलकर अन्य अनेक दूतकाव्य भी, शृङ्गार की इस सरस-धारा में रचे गये । इन सभी दूतकाव्यों में शृङ्गार के उभय पक्षों का पूर्ण व पर्याप्त निदर्शन मिलता है | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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