________________
भूमिका : १७ यह सम्भव है कि पशु-पक्षियों के दूत-कार्य तथा पथ-प्रदर्शन-कार्य को देखकर ही परवर्तो कवियों को उन्हें सन्देशवाहक बनाकर विभिन्न सन्देशकाव्य लिखने की प्रेरणा मिली हो। पशु-पक्षियों को नायक बनाकर कथा लिखने की प्रथा काफी प्राचीन है। संस्कृत-कथा-साहित्य के प्राचीनतम ग्रन्थ पञ्चतन्त्र तथा हितोपदेश में तो पशु-पक्षियों को ही नायक बनाकर कथाएँ लिखी गई हैं। भारतीय लोकगीतों में भी पक्षियों द्वारा पत्र व सन्देश-सम्प्रेषण की परम्परा प्राप्त होती है।
इस प्रकार सन्देश-सम्प्रेषण की यह कल्पना वेद से लेकर वाल्मीकिरामायण, श्रीमद्भागवत तथा जैन एवं बौद्ध ग्रन्थों तक में मिलती है। इसके अतिरिक्त सन्देशात्मक कथा-गाथाएँ पौराणिक ग्रन्थों से लेकर लोक साहित्य तक में भी बहु-प्रचलित रही हैं, किन्तु मेघदूत के पूर्व दूतकाव्य के रूप में सम्पूर्ण एवं सर्वाङ्ग सुन्दर अन्य कोई भी दूसरी रचना उपलब्ध नहीं है। भले ही दूतत्त्व के प्रेरणाप्रदायक स्वरूप काव्यस्रोत अवश्य हो कालिदास के पूर्व प्राप्त होते हैं। - दुतकाव्य की इस परम्परा में आदिकवि वाल्मीकि की रामायण के बाद श्रीभासरचित "दूतवाक्य" एवम् “दूतघटोत्कच" का ही स्थनन आता है। क्योंकि भास का समय ईसा की प्रथम या द्वितीय शताब्दी का है।
संक्षेपतः कहा जा सकता है कि कथा की प्रेरणा एवं रूपरेखा चाहे भी जहाँ से प्राप्त क्यों न की गई हो, परन्तु खण्डकाव्य के रूप में सन्देशकाव्य का सर्वप्रथम सृजन महाकवि कालिदास के ही कर-कमलों द्वारा सम्पन्न हुआ और वह इतना लोकप्रिय भी हो गया कि परवर्ती संस्कृतकाव्य-साहित्य में दूतकाव्य की एक सुदीर्घ परम्परा ही विकसित होकर चल पड़ी। दूतकाव्यों का वर्गीकरण : ___ समाज के तत्कालीन वातावरण, उसकी आवश्यकता एवं देश की परिस्थिति के अनुरूप ही दूतकाव्य के स्वरूप में, शैली में निरन्तर परिवर्तन परिलक्षित होता है। स्वाभाविक भी है कि काव्य-रचना पर, तत्कालीन सामाजिक वातावरण का प्रभाव अवश्य पड़ता है। क्योंकि काव्य, साहित्य का ही एक अभिन्न अङ्ग है। साथ ही साहित्य समाज का दर्पण भी कहा गया है। अतः भिन्न-भिन्न काल में समाज के बदलते स्वरूप के अनुरूप ही तत्कालोन काव्यों की सृष्टि होती रही है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org