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१६ : जैनमेघदूतम्
देवी सीता की इतनी विरह कातरता को देख कर हनुमान का रोमरोम पुलकित हो उठा, उनसे रहा न गया और वे सीता देवी के समक्ष तुरन्त प्रस्तुत हो गये, उन्हें अपने सम्मुख देखकर सीता जी ने तुरन्त हनुमान से पूछा
कत्थ पएसे सुन्दर!, दिट्ठो ते लक्खणेण सह पडमो ! | निरुवह अंगोवंगो ?, कि व महासोगसन्निहिओ ? ॥ अह वा कि मह विरहे, सिढिलो भूयस्स वियलिओ रणे । लद्धो भद्द ! तुमे कि, अह अंगुलिमुद्दओ एसो ?' ॥
यह सुनकर हनुमान ने सीता जी को प्रणाम कर श्रीराम की कुशलवार्ता के साथ उनकी विरह-दशा और लक्ष्मण की दशा उनसे बतायी । "
इस प्रकार राम-लक्ष्मण की कुशल-वार्ता कह कर और भोजन कर हनुमान ने सीता देवी से कहा
निव्क्तभोयणविहो, विन्नविया मारईण जणयसुया । आरूहसु मज्झ खन्धे, नेमि तहि जत्थ तुह दइओ ॥ ३ इस पर सीता देवी कुलवधू के गुणों का वर्णन कर अपनी विरह-दशा का सन्देश भी श्रीराम को देने के लिए कहती हैं ।" इस प्रकार देवी सीता का सन्देश लेकर और रावण का मद चूर्ण कर, हनुमान् वहाँ से वापस होकर श्रीराम के चरणों में आकर उपस्थित होते हैं । उनको देखकर श्रीराम को उस समय जो आत्म-परितोष हुआ, इतना शायद उन्हें सीता के साथ विवाह में भी कठिनाई से हुआ होगा । तब हनुमान ने श्री राम को सीता देवी का सन्देश देकर वहाँ का सारा समाचार सुनाया।
इस प्रकार दूत- सम्प्रेषण सम्बन्धी एक बहुत सुन्दर प्रसंग, जैन काव्य साहित्य के प्रसिद्धतम "पउमचरियं" काव्य-ग्रन्थ में प्राप्त होता है ।
१. पउमचरियं, सुन्दरकाण्ड, ५३।२१-२६ ।
२. वही, ५३।२७-३९ ।
३. वही, ५३।६०
४. वही, ५३।६१-६२ ।
५. वही, ५३।६४ -७२ । ६. वही, ५४।३ - ११ ।
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