________________
११८
जैनमेघदूतम्
भवति । अयम् अत्र भावः -- अक्षपादस्तु स्मृतिमप्रमाणरूपां वक्ति यदि च सा अप्रमाणरूपा स्यात् तर्हि कथं स्मृत्या क्लेशदायको भवति । अतः सा प्रमाणमेव स तु नैव दक्षः ||३१||
प्रत्यक्षादि प्रमाणों की तरह स्मृति का प्रामाण्य न मानने वाले अक्षपाद मेरे विचार से सही नहीं हैं अर्थात् उनका सिद्धन्त अनुभव विरुद्ध है | जब आप मेरे द्वार से लौट रहे थे तो मैंने प्रत्यक्ष आपको देखा, जब बाजे गाजे के साथ आप वन को जा रहे थे तब अनुमान किया कि आप वन को प्रस्थान कर रहे हैं और सखियों ने कहा कि श्रीनेमि ने दीक्षा ले ली है तो राष्ट्र प्रमाण के द्वारा आपके संन्यस्त होने को जाना तीनों प्रमाणों से जानकारी होने पर तो दुःख हुआ हो पर जब जब आप स्मृति पथ पर आते हैं अर्थात् आपका जब मैं स्मरण करती हूँ तब तो और भी कष्ट होता है । इसीलिए मेरा अनुभव है कि प्रत्यक्षादि प्रमाणों की तरह ही स्मृति को भी प्रमाण कोटि में नैयायिकों को रखना चाहिए ||३१||
मूढे
क्लेशाविष्टे प्रमुदितमतिर्दीर्घतृष्णे वितृष्णो मूढेतरपरिवृढस्तापिते निर्वृतात्मा । व्यक्तं रक्ते वसति हृदये चेद्विरक्तो ममेशाssधाराधेये तदुपचरिते केन भेदेतरेण ? ||३२||
क्लेशाविष्टे ० ईश ! चेत् यदि त्वं मम हृदये वसति तत् तर्हि केन पुरुषेण भेवेतरेण ऐक्येन कृत्वा आधाराधेये आधारभूत आधेयभूते वस्तुनी उपचरिते स्वीकृते अपितु न कानपि इत्यर्थः । किंभूते हृदये - क्लेशाविष्टे क्लेशव्याप्ते कि रूपस्त्वम् - प्रमुदितमतिः हर्षित बुद्धिः । किरूपे हृदये - दोर्घतृष्णे दीर्घतृष्णालौल्यं यस्य तत् तस्मिन् किंभूस्त्वम् - वितृष्णः विगतलौल्य: । किरूपे हृदये — मूढे मूर्खे | किलक्षणस्वम् - मूढेतर परिवृढः मूढेतराणां दक्षाणां परिवृढः स्वामी । किंभूते हृदये - तापिते सन्तापं गमिते । किंभूतस्त्वम् - निर्वृतात्मा समाधिपरः । किंभूते हृदये - व्यक्तं स्पष्टं यथा स्यात् तथा रक्ते अनुरक्ते । किभूतस्त्वम् । विरक्तः विरतः ॥३२॥
आधार और आधेय में मात्र औपचारिक भेद है ऐसा कहना भी ठीक नहीं है | हमारा हृदय आधार है । आप आधेय हैं दोनों में स्पष्ट रूप से अन्तर है क्योंकि हमारा हृदय क्लेश मग्न है और आप आनन्द मग्न हैं वह गाढ़ भोगेषणा वाला है और आप निष्काम हैं वह मूढ़ है आप विज्ञ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org