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________________ जेनमेघदूतम् सति आकुला व्याकुला आसम् अभवं । किंभूताऽहं - उत्प्रेक्ष्यते--सुमशरश - भ्याहता इव सुमशरस्य कुसुमवाणस्य शरैः बाणैः अभ्याहता इव प्रतिहता इव । क इव ---धकोरी इव, यथा चकोरो विधुं चन्द्रमयं चक्षुः क्षिप्त्वा दिदृक्षुः सति आकुला भवति ।। ३६॥ ८८ हे मेघ ! स्नान, भोजन, लेप एवं शृङ्गार को हुई मेघगर्जना सुनने को 'ब्याकुल मयूरी की तरह मैंने ज्योंहों नान्दीरव (बारह प्रकार के वाद्य यन्त्रों की ध्वनि) का सुता त्योंहों चन्द्रमा को देखने के लिए उत्सुक चकोरी की तरह चारों तरफ दृष्टि फेकती हुई कामदेव के बाणों से घायल होकर श्रीनेमिनाथ को देखने के लिए ब्याकुल हो उठी || ३६ ॥ पेषेषु स्वविषयसुखं भेजिवत्सूत्सुकायामायान्त्यस्मै सखि ! सुखयितुं किं न चक्षू ंषि युक्तम् ? इत्यालीनां सुबहु वचनं मन्यमाना विमानं मत्तालम्बं तदनुचरिताऽशिश्रियं देवतेव ॥ ३७॥ " पेषेषु • हे जलधर ! अहं मत्तालम्बं गवाक्षम् अशिश्रियम् अश्रितवती । क इव - देवता इव यथा देवता विमानं श्रयति । किंभूताऽहं - - तदनुचरिताभ्यः आलीभ्यः अनु पश्चात् चरिता चलिता, अथ वाताभिः आलीभिः अनुचरिता सेविता । अहं किं कुर्वाणा - आलोनां सखोनाम् इति वचनं सुबहु सुष्ठु अतिशयेन बहु यथा स्यात् तथा मन्यमाना । इतीति कि हे सखि ! हे राजीमती पेषेषु कर्णेषु स्वविषयसुखं श्रवणसुखं भेजिवत्सु प्राप्तवत्सु चक्षूंषि नेत्राणि सुखयितु ं किं न युक्तम् अपितु युक्तम् एव । कि विशिष्टानि चक्षूषि - अस्मै स्वविषयसुखाय अवलोकनाय उत्सुकायाम् आयान्ति आगच्छन्ति । इदं संतृड् प्रत्ययान्तं पदम् ॥३७॥ प्राप्त कर लेने पर हे सखि ! कर्णों के अपने विषय (शब्द) सुख को अपने विषय (दर्शन) सुख के लिए उत्सुक नेत्रों को सुख देना क्या उचित नहीं है ? अर्थात् आवश्यक है । इस प्रकार अपनी सखियों की बातों को सुनकर मैं उनके पीछे-पीछे वैसे ही गवाक्ष ( खिड़की ) का सहारा लिया जैसे देवतागण विमान पर आरोहण करते हैं ||३७|| श्रेयः सारागममुपयमाद्यङ्गमग्यासनस्थं नासान्यस्तस्तिमितनयनं पुण्यनेपथ्ययोगम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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