________________
जैनमेघदूतम् हे मेघ ! वर एवं वधू के हर्षित जनकों के, रत्नों से युक्त होने के कारण रात्रि में भी अन्धकार न रहने वाले महलों में, खुशी से मिलने आने वाले पुरवासियों एवं सम्बन्धियों के स्वागत के लिए चावल, दाल, गेहूँ, मूंग आदि अन्नों के ढेर के ढेर पकने लगे अर्थात् आये हुए सगे सम्बन्धियों के स्वागत के लिए विभिन्न प्रकार के भोजन बनने लगे ॥ २९ ॥
खाद्यस्वाद्याभरणसिचयाधर्चया बन्धुवर्गो नानादेशागतनरपतीनेकतः सच्चकार । वर्णोद्वर्णस्नपनवसनालेपनापीडपुण्ड्राऽलङ कारस्तं प्रभुमपि च मामन्यतोऽलञ्चकार ॥३०॥
साधस्वाया • हे जलघर ! बन्धुवर्गः एकतः एकस्मिन् पक्षे खाद्यस्वाद्याभरणसिचयाधर्चया खादिमस्वादिम वस्त्रालङ्करण वस्त्रप्रमुखपूजया कृत्वा नानादेशागत. नरपतीन् सच्चकार । हे मेघ ! बन्धुवर्ग: अन्यतः अन्यस्मिन् पक्षे तं प्रभु श्रीनेमि व पुनः मां राजीमतीम अलञ्चकार । कैः---वर्णोवर्णस्नपनवसनालेपनापोडपुण्ड्राऽ. लङ्कारः वर्णः लोकभाषयावानेकक्षेपणम् उद्वर्ण्य पिष्टिकया शरीरमर्दनं स्नपनं स्नानं वसनानि वस्त्राणि आलेपन अङ्गविलेपनम् आपोडो मुकुटः पुण्ड्रं तिल कम् इत्यादि मरुडारैः ॥३०॥
हे मेघ ! वर एवं वधू के बन्धुजन एक तरफ विभिन्न प्रकार को स्वादु खाद्यवस्तुओं से, आभूषणों से एवं वस्त्रों से दूर-दूर से आये हुए राजाओं का स्वागत कर रहे थे तो दूसरी तरफ उबटन, स्नान, लेपन, वस्त्र-आभूषण, मुकुट तिलक, आदि विभिन्न अलङ्कारों से हमें (राजीमती) और प्रभु नेमि को सजा रहे थे ॥३०॥
रोदोरन्ध्र सुरनरवराहूतिहेतोरिवोच्चरातोद्यौषध्वनिभिरभितः पूरिते भूरितेजाः । अध्यारोहन्मदकलमिभं विश्वभौ पवाां गत्यैवाधःकृतिमतितरां प्रापिपत् पौनरुक्त्यम् ॥३१॥
रोबोरन्ध्र • हे जलघर ! विश्वभर्ता श्रीनेमिः औपवाह्यं राजवाह्यम् इर्भ गजम् अध्यारोहत् अतितराम् अतिशयेन पौनरुक्त्यं कृतस्य पुनःकरणं प्रापिपत् प्रापयामास । किरूपम् इभं मवकलं मदेन मनोज्ञं तथा गत्यवाषाकृतं गत्या एवं अधः कृतम् । किरूपो विश्वभर्ता-भूरितेजाः । कासति--आतोबोधष्वनिभिः
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org