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________________ तृतीय संग ७३ इसके बाद वाग्मियों की सीमा (मर्यादा) अर्थात् मितभाषिणी सुसीमा बोली हे धीमन् ! देखिये गृहस्थ ब्रह्म की तरह निष्काम होकर अच्छा नहीं माना जाता । अतः आप गुरुजनों की बात मानकर अपनी द्वितीया ( अर्थात् ) पत्नी को ग्रहण कर आगे के सौभाग्यादि को उसी प्रकार प्राप्त करेंगे जैसे सभी शुक्लपक्षों में चन्दमा द्वितीया तिथि का विस्तार कर अग्रिम कलाओं को प्राप्त करता है ॥ ११ ॥ नार्या आर्यापर परमिति त्वं दिषन् कोऽसि निष्णो जिष्णोर्मान्या प्रतनभगवच्छान्ति मुख्यार्हतो या । संपश्यस्व क्षणमपि महाव्रत्यपोशो न मुञ्चेद् गौरीं गौरी गिरमिति जगौ प्रेमकोपादगौरी ॥१२॥ नार्या आर्या • हे जलधर ! गौरी नाम्नी राजी इति गिरं जगौ जजल्प । किंरूपा गौरी – प्रेमकोपादगौरी स्नेहकोपात् अगौरी कोपसम्बन्धात् रक्तीभूतेत्यर्थः । इतीति कि हे आर्यापर ! आर्यकेभ्यः भद्रकेभ्यः अपरः अन्यः आर्यापरः तत्सम्बुद्धिः हे धूर्तः त्वं परं केवलं नार्याः नारीं इति अस्वीकारप्रकारेण द्विषन् दूषयन् को निष्णोऽसि को निपुणोऽसि या नारी जिष्णोः कृष्णस्य मान्या माननीया प्रतनः चिरन्तनः भगवत् शान्तिमुख्यार्हतः श्रीशान्तिनाथप्रमुखतीर्थ कृतोऽपि मान्या । हे देवर ! संपश्यस्व विलोकयस्व ईश: ईश्वरः महाव्रती अपि प्रकृष्टव्रतोऽपि क्षणमपि -गौरी पार्वतीं न मुञ्चेत् न त्यजति । नार्याः इति अत्र द्विष् धातु संयोगे कर्मस्थाने षष्ठीज्ञेया ॥ १२ ॥ इसके बाद प्रेमक्रोध के कारण अगौरी (लाल) गौरी नामक रानी ने व्यंग्य में कहा - हे आर्यापर ! (अर्थात् धूर्त) जो नारी भगवान् श्री शान्तिनाथ जैसे मुख्यजिनों के द्वारा भी मान्य है उस नारी से द्वेष करने चाले तुम कौन से सिद्ध हो ? ( अर्थात् शादी न करके बड़े सिद्ध बनते हो ) और भी देखो - महाव्रती भगवान शंकर भी गौरी (पार्वती) को एक क्षण के लिए भी नहीं छोड़ते ॥ १२ ॥ सत्या सत्यापितकृतकवावकोपमाचष्ट सख्यः ! साध्यः साम्नां न जलपृषतां तप्तसर्पिर्वदेषः । रुवातन्न स्वयमतिबलाच्चाशु वश्यं विधाय स्वान्तं संविद्वदिममबलेत्यात्मदोषोऽद्य नोद्यः ॥ १३ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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