________________
तृतीय सर्ग तव लावण्यं निशमयन् लोचनानां सहस्र अबिभः दवार । अथ अनन्तरं तारुण्यश्री: यौवनश्रीः ते रूपलावण्ये व्यशिषत् विशेष प्रापयत् । किंवत्-शरद्वत्,, यथा शरत् अश्वयुक् कार्तिकसमयः पुष्पदन्तो शशिभास्करी व्यशिनष्टि विशेष प्रापयति । यथा नाममालायां पुष्पदन्तौ पुष्पदन्तावेकोक्त्या शशिभास्करो। हे देवर ! त्वं स्त्री: विना अमूनि रूपलावण्यानि तारुण्यानि भरण्यप्रसवसमतां अरण्यकुसुममानतां नेता प्रापकः ॥ ८॥
हे देवर ! काम तुम्हारे रूप को देखकर लज्जित हो अनङ्ग हो गया अर्थात् छुप गया। इन्द्र ने आपके लावण्य को देखने के लिए हजारों नेत्र धारण किये, योवनश्री ने तो उन दोनों (रूप और लावण्य) के उत्कर्ष को और भी बढ़ा दिया है जैसे शरद् ऋतु चन्द्र और सूर्य की शोभा बढा देती है । पर इन सारी चीजों को तुमने स्त्री के बिना (अर्थात् शादी के बिना) काननकुसुम (वनफूल) की तरह बना दिया है अर्थात् स्त्री के बिना तुम्हारी यह समस्त शोभा व्यर्थ है ॥ ८॥
नाभेयोपक्रममिह यथा 'श्रेयसोऽध्वा तथैवोद्वाहस्यापि स्मरसि तदुपज्ञं न कि देवरेति । तत्तां देवी सतिमपमुजन् कोऽपि नूत्नोऽसि सार्वो हारीभूतद्विजमणिपूणिर्जाम्बवत्यप्यगासीत् ॥९॥
नाभेयोपक्रम • हे जलघर ! नाम्बवत्यपि जाम्बवती नाम्नी राश्यपि । अगासोत् जजल्प । हे वेवर ! त्वं इति किं न स्मरसि अपितु स्मरसि एव । इतीति किं, यथा-इह विश्वे पायसोध्वा मोक्षसम्बन्धीमार्गः नाभेयोपक्रमं नाभेय एव उपक्रम आदिकरणं वर्तते तथैव उद्वाहस्यापि विवाहस्यापि अध्वा तदुपर्श स एव श्रीआदिनाथ एव उपझं मूलं कारणं वर्तते तत् तस्मात्कारणात हे देवर ! त्वं तां देवी देवसम्बन्धिनी सति मार्ग अपमजन् लुम्पन् कोऽपि नूनः नवीनः सार्वोऽसि सर्वज्ञः वत्तसे । किरूपा जाम्बवती-हारीभूतद्विजमणिघृणिः हारीभूता हारप्रयोजतो. द्विजमणीनां दन्तरत्नानां घृणिः दीप्तिः यस्याः सा ॥ ९॥
(रुक्मिणी के बाद) जाम्बवती नाम को रानी ने हँसते हुए कहा कि हे देवर ! इस बात को आप क्यों नहीं सोचते कि आदिदेव जैसे मोक्षमार्ग के प्रवर्तक हैं उसी प्रकार विवाह के भी प्रवर्तक हैं। तो आप उस दैवी मार्ग को छोड़ने वाले कोई नवीन सर्वज्ञ हैं क्या?॥९॥
१. मूल में आयस शब्द है जो अशुद्ध प्रतीत होता है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org