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________________ द्वितीय सर्ग अश्रान्तोऽपि० हे जलधर ! श्रीमान्नेमिः पुष्करिण्या वाप्या निरैयः निर्गतः । अश्रान्तोऽपि अखिन्नोऽपि श्रममिव वहन धारयन् तथा व्यक्तमुक्तायिताम्भोबिन्दुः व्यक्तं स्पष्टं मुक्तायिता मुक्ताफलवदाचरिता अम्भसो जलस्य बिन्दवो यस्य सः तथा रक्तोत्पलदललवामुक्ताङ्कराढः रक्तोत्पलदललवै रक्तकमलपत्रखण्ड: आमुक्ता रचिता रक्ताङ्कस्य प्रवालस्य राढा शोभा यस्य स तथा जलपतिकफरपुण्डरीक प्रकाण्डः जलपतिकफत् समुद्रफेनानि इव आचरन्तः पुण्डरीकानां श्वेतकमलानां प्रकाण्डास्थुडा यस्य सः । क इव-सुरकरी इव यथा सुरकरी ऐरावणः वारांराशेः समुद्रात् निर्गच्छति । सोऽपि अधान्तोऽपि श्रममिव वहति मुक्ताफलसहितः प्रवालयुतश्च समुद्रफेनसहितश्च भवति ॥ ४९ ।। इति विधिपक्षमुख्याभिधानश्रीमदञ्चलगच्छेश्वरश्रीजयकीतिसूरिशिष्य पण्डितमहीमेरुगणिविरचितायां बालावबोधवृत्तौ श्रीनेमीश्वर __वसन्तके लिवर्णनोनाम द्वितीयः सर्गः ।। न थकने पर भी थकान प्रकट करने वाले श्रीनेमिनाथ जल क्रीड़ाकर उस दीपिका ( बावली) से निकले, उनके शरीर पर जल बिन्दुएँ थीं जो मोती को तरह लग रही थीं, उनके वक्षःस्थल पर शोभित श्वेतकमल को माला फेन की तरह लग रही थी एवं लालकमल मूगे की तरह लग रहे थे। उस समय श्रीनेमि ऐसे लग रहे थे मानो ऐरावत जलक्रीड़ाकर समुद्र से निकला हो उसके शरीर पर मूंगे, मोती एवं फेन लगे हो । इति श्रीजैनमेघदूतमहाकाव्ये द्वितीयः सर्गः ॥ २ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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