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जैनमेघदूतम् एक अन्य श्रीकृष्ण की पत्नी ने मुस्कराकर अपने तीक्ष्ण कटाक्षरूपी वाणों को चलाते हुए, जड़ से उखाड़े गये नासिका के सूघने योग्य हार में गूथे गये काम के पाश की तरह श्वेत कमलों को यह कहकर श्रीनेमि के गले में पहना दिया कि ऐ-तू मेरे देवर के निर्मल नेत्रों से स्पर्धा कर रहा है ।। ४७ ॥
क्रोडां हेमद्युतिहरिवधूबन्दितो बान्धवस्य प्रोत्यै तन्वन् प्रतिकृतशतैरप्सु हर्षेकहेतुः । श्यामः स्वामी चिकुर विगलद्वारिधारश्चकाशे विद्युन्मालापरिगतवपुर्वल्गु वर्षन्निव त्वम् ॥ ४८ ॥ क्रोडां हेमद्युति० हे जलद ! स्वामी श्रीनेमिः चकाशे शुशुभे । किं कुर्वन्अप्सु पानीयेषु प्रतिकृतशतैः कृतस्य प्रतिकरणशतः बान्धवस्य कृष्णस्य प्रोत्यै प्रीत्यर्थ क्रीडां तन्वन् विस्तारयन् कुर्वन् इत्यर्थः । किंरूपः स्वामी-हेमद्युतिहरिवधूबन्दितः हेमद्युतिः इव सुवर्णकान्तिः इव हरिवधूभिः बन्दितो बन्दीकृतो वेष्टितो इत्यर्थः तथा हर्षेकहेतुः आनन्दस्य अद्वितीयकारणं तथा श्याम: कृष्णवर्णः तथा चिकुरविगलद्वारिधारः चिकुरेभ्यः केशेभ्यः विगलन्ती पतन्ती वारिधारा यस्य सः । क इव-हे जलद ! त्वम् इव यथा त्वं राजसे । किरूपस्त्वं-विद्युन्मालापरिगतवपुः विद्युन्मालाभिः तडितश्रेणोभिः परिगज्ञं वेष्टितं वपुः शरीरं यस्य सः तथा वल्गु मनोज्ञं यथा भवति तथा वर्षन् वृष्टि कुर्वन् । ४८ ॥
स्वर्णिम कान्ति से युक्त उन श्रीकृष्ण की पत्नियों से घिरे हुए, हर्ष के एक मात्र हेतु, तथा जिनके बालों से जल धाराएं बह रही हैं ऐसे श्याम वर्ण वाले श्रीनेमि अपने बन्धु श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिए जलमें श्रीकृष्ण की पत्नियों को भिगोते हुए खूब जल क्रोड़ा की। उस समय वे ऐसे शोभित हो रहे थे मानो विद्युत से घिरे हुए तुम ( मेघ ) सुन्दर वर्षा करते हुए शोभित होते हो।
अश्रान्तोऽपि श्रममिव वहन व्यक्तमुक्तायिताम्भोबिन्दू रक्तोत्पलदललवामुक्तरक्ताकुराढः । श्रीमान्नेमिर्जलपतिकफत्पुण्डरीकप्रकाण्डो वारांराशेरिव सुरकरी पुष्करिण्या निरैयः ॥ ४९॥
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