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द्वितीय सर्ग
मेघ ! यतो यस्मात् कारणात् लोके लोकमध्ये गृद्धिबुद्धिः सलोभधीः विशेषात् प्राप्तेश्वर्य प्राप्तसमृद्धि पुरुषं रमयति सलौल्यं करोति ॥ ३३ ।।
तेज को प्राप्त कर प्रतापी सूर्य ने अपनी प्रखर उष्ण किरणों से जल को खींचते हुए अपने ही परिवार (कुटुम्ब) वाले कमलों के निवास स्थान (तालाब) को पीड़ित कर हानि पहुँचायी अर्थात् सुखा दिया । यह सच ही है कि संसार में लोभ में आसक्त बद्धि ऐश्वर्य को प्राप्त किये व्यक्ति को विशेष रूप से अपने अधीन कर लेती है ।। ३३ ।।
तापव्यापाकलितजनतपञ्चशाखे तुषारान् संवर्षद्भिः पवनलुलितैस्तालवृन्तर्विरेजे । धर्तुः शैत्योन्नततरुभिवे वर्मलक्षाणि धर्मव्यालस्येव तमंदकणैः कर्णतालैंर्विलोलैः ॥३४॥ तापव्यापा ० हे जलद ! तापव्यापाकुलितजनतापञ्चशाखे तापव्यापाकुलीभूतः जनसमूहहस्ते तालवृन्तैः व्यजनकरैः विरेजे राजित । किरूपः तालवृन्तैःतुषारान् जलकणान् संवर्षद्भिः। पुनः किरूपः-पवनलुलितः पवनचालितैः । पुनः कीदृशैः, उत्प्रेक्ष्यन्ते-धर्मव्यालस्य धर्म एव व्यालो दुष्टगजस्तस्य कर्णतालैरिव कर्णपर्पटकैरिव । किरूपः विलोले:-चञ्चलः तथा तमदकणैः क्षरितदानजलकणैः। किंरूपस्य धर्मव्यालस्य-शैत्योन्नततरुभिदे वर्मलक्षाणि धतुधारकस्य । शैत्यमेव उन्नतं उच्चस्तरीयस्तर वृक्षस्तस्य भिदे भेदाय वर्मलक्षाणि शरीरचिह्नानि धर्तुः ॥ ३४ ॥
ग्रीष्म में ताप के विस्तार से पीड़ित लोगों के हाथों में जलकण वर्षा एवं वायु के लिए डुलाये जा रहे पंखे ऐसे शोभित हो रहे थे मानो शीतलता रूपी बड़े वृक्ष को तोड़ने के लिए लाखों शरीर धारण करने वाले घाम ( धूप ) रूपी मतवाले हाथी के मदकण टपकाने वाले चञ्चल कान हों ॥ ३४ ॥
संतापाढयः प्रखरकरभीतिदोषोदयेच्छस्तृष्णापात्रं जडकृतरतिर्दोघं निद्राभिलाषी ।
१. जैसे कोई प्रतापी राजा अपने ऐश्वर्य में मत्त होकर कठोर कर लेकर अपनी
प्रजा का शोषण करता है।
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