SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 290
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीय सर्ग . विलसितैः देवचेष्टितैः दुःखावस्थां निन्दनीयदशा प्रापितायाः। किंरूपस्यतव विश्वविश्वोपकर्तु: विश्वं सम्पूर्ण यत् विश्वं जगत् तस्य उपकतु: उपकारिणः ॥ २७ ।। हे मेघ मोह या मूर्छा के कारण स्खलित वचन वाली मुझे अपनी उपेक्षा का पात्र मत बनाओ। भाग्य के प्रभाव से इस दुःखावस्था को प्राप्त मैं हीन वादिनी स्त्री ( जिसके पास न जाया जा सके ) नहीं हैं। सम्पूर्ण संसार का उपकार करने वाले आपको मेरी बात विशेष रूप से सुननी ही चाहिए ॥२७॥ वासन्ती तां श्रियमुपवने साधु निविश्य कान्तां लोकम्प्रीणानणुगुणभृददितस्तस्य सख्या। क्लुप्ताकल्पस्तदिषुमिरुदाच्छिद्य रोषादिवात्तैविष्वक्सेनो न्यविशत पुरी द्वारकां नेमिदृष्टिः ॥२८॥ वासन्ती तां • हे मेघ विष्वक्सेनो नारायणः द्वारकां पुरी न्यविशत् प्रविवेश । उपवने क्रीडाकानने तां पूर्ववृत्तवणितां वासन्तीं वसन्तोद्भवां कान्तां कमनीयां श्रियं साधु मनोज्ञा यथा स्यात् तथा निविश्य उपभुज्य अन्योपि किल उपवने कान्तां पत्नी उपभुज्य पुरीं प्रविशति । किरूपो विष्वक्सेनः--लोकम्प्रीणानणुगुणभूदपि लोकम्प्रीणान् लोकालादकान् अनन् गुरून् गुणान् विभीति लोकम्प्रीणानणुगुणभृत एवंविधोऽपिसन् तस्य वसन्तस्य सख्या मित्रण कन्दर्पण अदितः पीडितः । किरूपः--तदिषुभिः तस्य कामस्य सरन्या इषुभिः बाणैः एतावता पुष्पैः क्लृप्ताकल्पः क्लृप्तोरचितः आकल्पो शृङ्गारो येन सः। किंभूतैः इषुभिः, उत्प्रेक्ष्यतेरोषात् कोपात् उद्दाल्य आत्तैरिव गृहीतैरिव । पुनः कीदृशो--विष्वक्सेनः नेमिदृष्टि: नेमिनि श्रोनेमिनाथे दृष्टिर्यस्य सः ।। २८ ।। __ महान् गुणों को धारण करने वाले लोकप्रिय श्री कृष्ण ने उस उपवन में मनोहारिणी वसन्त की शोभा का भरपूर आनन्द लिया वाच्यान्तरअपनो प्रिया लक्ष्मो का उपभाग कर, वसन्त सखा काम से पीड़ित होते हुए मानो उसो से जबरदस्ती छोने गये पुष्पों से शृङ्गार करके श्रीनेमि पर दृष्टि रखते द्वारका नगरी में प्रवेश किया ।। २८ ॥ सख्युर्दोषात्कुसुमधनुषः शान्तसत्रोरनिष्टे तस्येशस्य स्वयमपसृते पुष्पकाले ह्रियेव । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy