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________________ द्वितीय सर्ग . दुन्दुभि से यतियों को ललकार रहा है इसी की उत्प्रेक्षा प्रस्तुत श्लोक में है__निश्चल आम्रवृक्ष की डालियों पर बैठे मधुर कण्ठ वाले कोकिल पक्षी (कोयल) सभी दिशाओं में उच्च स्वर से ध्वनि कर रहे (कक रहे) थे, जैसे तीनों लोकों के विजय के लिए तैयार कामदेव को जीतने की इच्छा वाले यतिसमूह रूपी योद्धाओं को युद्ध में दुन्दुभि बजाने वाले कामदेव के श्रेष्ठ चारण युद्ध के लिए ललकार रहे हों कि अब कामदेव आ रहे हैं युद्ध के लिए तैयार हो जाओ ॥६॥ किश्चित्प्रेक्ष्या दरविकसितेष्वार्तवेषु प्रसूनेएवंन्तर्मूढाः शुशभरभितः पिञ्जराः केसराल्यः । शाखोच्चण्डेष्विव तनभुवो वीरतूणीरकेषु क्षिप्ता दीप्ता विशिखविसरः कान्तकल्याणपुङ्खाः ॥७॥ किञ्चित्प्रेक्ष्या • हे जलधर आर्तगेषु वसन्तसम्बन्धिषु प्रसूनेषु पुष्पेषु केसराल्यः अभितः समन्तात् शुशुभुः रेजुः । किरूपाः केशराल्यः-किञ्चित् स्तोकं प्रेक्ष्याः विलोक्याः । किंरूपेषु पुष्पेषु-दरविकसितेषु । किंरूपाः केशराल्यः-पिञ्जराः पीतवर्णाः तथा पुनः किंरूपाः, उत्प्रेक्ष्यन्ते तनुभुवः कामस्य वीरतूणीरकेषु सुभटभस्त्रकेष क्षिप्ता विशिखविसरा इव बाणसमूहा इव । किंभूतेषु वीरतूणीरकेषुशाखोच्चण्डि तेषु अवलम्बितेषु । किंरूपाः विशिखविसरा:-दीप्ताः सुवर्णवर्णत्वात् तथा कान्ताः मनोज्ञाः कल्याणस्य सुवर्णस्य पुङ्खा येषां ते कान्तकल्याणपुलाः ॥७॥ वसन्त में खिलने वाहे अर्ध विकसित (अधखिले) फूलों के भीतर दिव्पी हुई तथा कुछ-कुछ दीखने वाली पीली पीली केसरा वाली, कामदेव के कन्धों पर बाँधे हुए तरकसों में रखे हुए, दीप्त (चमकीली) तथा सुन्दर स्वर्णमुख वाले वाणों के समान सुशोभित हो रही थी ॥७॥ अग्रे तीक्ष्णं क्रमपृथु ततो नीलपौः परीतं पुष्पवातं दधुरभिनवं केतकीनां कलापाः । कोशक्षिप्तं कनककपिशं पत्रपालासिपुत्रोप्रख्यास्त्राणां समुदयमिवानराजस्य जिष्णोः ॥८॥ अग्रे तीक्ष्णं ० हे जलधर केतकोनां कलापाः समूहाः अभिनवं नूतनं पुष्पवातं पुष्पसमूहं वपुः धृतवन्तः । कीदृशं पुष्पवातं-अग्रे अनविभागेतीक्ष्णं तथा क्रमेण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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