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द्वितीय सर्ग
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प्रस्तुत इलोक में कवि ने क्रीड़ा योग्य पर्वतों की उत्प्रेक्षा युद्ध के लिए तैयार कामदेव के हाथियों से की है
वसन्त के आने पर वनों के कारण काले दीखने वाले क्रीड़ायोग्य पर्वत, कामरूपी राजा के युद्ध के लिए तैयार हाथियों की तरह शोभित हो रहे थे । पर्वतों पर उगे ताड़ के वृक्ष ही उनकी ध्वजायें थीं वृक्षों के नवीन लाल-लाल पत्ते ही उनके शरीर पर लिप्त सिन्दूर एवं वर्णनीय सुनहले केलों की पंक्तियाँ ही उनके दाँतों पर मढ़ा हुआ सोना था || ३ ||
कासारान्तः शुचिखगरुचिः स्मेरराजीवराजी
रेजे राजप्रतिमकमनस्यातपत्रावलीव । शोभां भेजुः कुसुमिततमाः कुन्दशालासु गुल्मा वातोद्धूता मरकतमहादण्डसच्चामराणाम् ॥४॥
कासारान्तः • हे जलद कासारान्तः सरोमध्ये स्मेरराजोव राजी विकस्वरकमलश्रेणिः रेजे शुशुभे । किंरूपाः स्मेरराजीवराजी - शुचिखगरुचिः शुचौ निर्मले खगे सूर्ये रुचि: इच्छा यस्याः सा अथवा शुचिना निर्मलेन खगेन सूर्येण रुचिः कान्तिः यस्याः सा । पुन: किरूपा - उत्प्रेक्ष्यते—- राजप्रतिमकमनस्य राजसमानकामस्य आतपत्रावलीव । किंरूपा - शुचिखगरुचिः शुचिखगवत् राजहंसवत् रुचिः कान्तिर्यस्याः सा अथवा शुचिना सूर्येण खगा आकाशगामिनीरुचिः कान्तिः यस्याः सा । हे जलद कुन्दशालासुगुल्मा गुच्छकाः मरकतमहादण्ड सच्चामराणां शोभां भेजुः आश्रितवन्तः । मरकतस्य नीलरत्नस्य महान्तोदण्डो येषु ते मरकतमहादण्डो । महादण्डाश्च ते सच्चामराश्चप्रधानचामराश्च मरकतमहादण्डसच्चामरास्तेषां । किरूपाः गुल्माः कुसुमिततमा: अत्ययं पुष्पिताः तथा वातोद्धूताः पवनचालिताः ॥ ४ ॥
तालाबों में खिले कमल समूह, कामरूपी राजा के छत्र की तरह शोभित हो रहे थे, तथा कुन्द के वृक्षों की शाखाओं पर खिले हुए फूलों के गुच्छे, वायु से प्रकम्पित ( हिलने पर ) होने से रत्नजटित दण्ड वाले श्रेष्ठ चामर की तरह शोभित हो रहे थे ॥४॥
संक्रीडन्तः सुषममभितो राजहंसाः सरस्सु प्राक्रीडन्त प्रति परपुर कम्बवो नु प्रवेश्याः ।
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